________________ 102 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11] तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान् महावीर से यह समाधान सुनकर और हृदय में अवधारण कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया; फिर जहाँ ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक था, वे वहाँ आए / ऋषिभद्रपूत्र श्रमणोपासक के पास प्राकर उन्होंने उसे वन्दन-नमस्कार किया और उसकी (पूर्वोक्त) बात को सत्य न मानने के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। 12. तए णं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, प० पु० 2 अट्ठाई परियादियंति, अ० 102 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, पं० 2 जामेव दिसं पाउम्भूता तामेव दिसं पडिगया। [12] फिर उन श्रमणोपासकों ने भगवान् से कई प्रश्न पूछे तथा उनके अर्थ ग्रहण किए और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में (अपने-अपने स्थान पर) चले गए। विवेचन-असन्तुष्ट श्रमणोपासकों का समाधान और ऋषिभद्रपुत्र से क्षमायाचना–प्रस्तुत चार सूत्रों में चार तथ्यों का उल्लेख किया गया है-(१) भ. महावीर का. धर्मोपदेश सुनकर उनके सामने ऋषिभद्रपुत्र के द्वारा प्राप्त समाधान की सत्यता की जिज्ञासा (2) भगवान् द्वारा ऋषिभद्रपुत्र के कथन की सत्यता का कथन, (3) श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र से वन्दन-नमन-विनयपूर्वक क्षमायाचना और (4) अन्य प्रश्नों का प्रस्तुतीकरण एवं अर्थग्रहण / ' कठिन शब्दों का अर्थ-समयाहिया-एक समय अधिक / भुज्जो मुज्जो-बार-बार / खामेंति- क्षमायाचना करते हैं। सम्म-सम्यक् प्रकार से / अट्ठाई परियादियंति—अर्थों का ग्रहण करते हैं / पसिगाई-प्रश्न / * / प्रस्तुत प्रकरण में असन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र जैसे बराबरी के श्रमणोपासक से वन्दन-नमन करके क्षमायाचना करने में, उनकी सरलता, सत्यग्राहिता, एवं विनम्रता परिलक्षित होती है। ऋषिभद्रपुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में कथन 13. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति णमंसति, वं० 2 एवं वयासीपभू णं भंते ! इसिमद्दपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पच्वइत्तए ? ___णो इणठे समठे, गोयमा ! इसिमद्दयुत्ते गं समणोवासए बहूहि सीलव्वत-गुणवत-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहि प्रहापरिग्गहितेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउििहति, ब० पा० 2 मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेहिति, मा० झू० 2 सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति स० छै० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्साए उववज्जिहिति / तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता / तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती भविस्सति / 1. वियाहपरणत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 556 2. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा, 4, पृ. 1963-64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org