________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२ ] [103 [13 प्र.] तदनन्तर भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ग्राप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ है ? [13 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासों से तथा यथोचित गृहीत तपःकर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन करेगा। फिर मासिक संलेखना द्वारा साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन कर, (आहार छोड़कर), आलोचना और प्रतिक्रमण कर तथा समाधि प्राप्त कर, काल के अवसर पर काल करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ कितने हो देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है / ऋषिभद्रपुत्र-देव की भी चार पल्योपम की स्थिति होगी। 14. से णं भंते ! इसिमपुत्ते देवे ताओ देवलोगाओ पाउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव कहिं उवज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिमिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [14 प्र] भगवन् ! वह ऋषिभद्रपुत्र-देव उन देवलोक से अायुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय करके यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? [14 उ.] गौतम ! वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! , यों कह कर भगवान् गौतम, यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। 15. तए गं समणे भगवं महावीरे अनया कयाइ पालभियानो नगरीओ संखवणाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, 102 बहिया जणवयविहारं विहरति / [15] पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान् महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। विवेचन ऋषिभद्रपुत्र के विषय में भविष्यकथन प्रस्तुत तीन सूत्रों (13 से 15 तक) में भगवान महावीर द्वारा ऋषिभद्रपुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में प्रतिपादित तथ्य का निरूपण किया है। भगवान् ने दो तथ्यों की ओर इंगित किया है--(१) ऋषिभद्रपुत्र महाव्रती श्रमण न बन कर श्रमणोपासकवतों का पालन करेगा और अन्त में संलेखना-अनशन पूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके प्रथम देवलोक में देव बनेगा, (2) फिर वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा।' CD 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org