________________ 572] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ [8 प्र.] भगवन् ! ऋषि को मारता हुआ कोई पुरुष, क्या ऋषिवर से स्पृष्ट होता है, या नो ऋषिवैर से स्पृष्ट होता है ? [8 उ.] गौतम ! बह (ऋषिघातक) नियम से ऋषिवैर और नोऋषि-वैरों से स्पृष्ट होता है। विवेचन-घातक व्यक्ति के लिए वैरस्पर्शप्ररूपणा-(क) पुरुष को मारने वाले व्यक्ति के लिए वैरस्पर्श के तीन भंग होते हैं - (1) वह नियम से पुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (2) पुरुष को मारते हुए किसी दूसरे प्राणी का वध करे तो एक पुरुषवैर से और एक नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (3) यदि एक पुरुष का वध करता हुना, अन्य अनेक प्राणियों का वध करे तो वह पुरुषवर से और अन्य अनेक नोपुरुषवरों से स्पृष्ट होता है। हस्ती, अश्व आदि के सम्बन्ध में भी सर्वत्र ये ही तीन भंग होते हैं / (ख) सोपक्रम आयुवाले ऋषि का कोई वध करे तो वह प्रथम और तृतीय भंग का अधिकारी बनता है / यथा-वह ऋषिवैर से तो स्पृष्ट होता ही है, किन्तु जब सोपक्रम आयु वाले अचरमशरीरी ऋषि का पुरुष का वध होता है तब उसकी अपेक्षा से यह तीसरा भंग कहा गया है।' एकेन्द्रिय जीवों की परस्पर श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा 9. पुढविकाइये णं भंते ! पुढविकायं चेव आणमति वा पाणमति वा ऊससति वा नीससति वा ? हंता, गोयमा ! पुढविक्काइए पुढविक्काइयं चेव प्राणमति वा जाव नीससति वा। [6 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को प्राभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को प्राभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है / 10. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणमति वा जाव नीससति वा? हंता, गोयमा ! पुढविक्काइए आउक्काइयं प्राणमति वा जाव नीससति वा। [10 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [10 उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को (आभ्यन्तर और बाह श्वासोच्छ्वास के रूप में) ग्रहण करता और छोड़ता है। 11. एवं तेउक्काइयं बाउक्काइयं / एवं वणस्सइकाइयं / [11] इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव को भी यावर ग्रहण करता और छोड़ता है। 12. आउक्काइए गं भंते ! पुढविक्काइयं आणति वा पाणमति वा० ? एवं चेव / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 491 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org