________________ नवम शतक : उद्देशक-३४] [12 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? [12 उ.] गौतम ! पूर्वोक्तरूप से ही जानना चाहिए / 13. आउक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं चेव प्राणमति वा० ? एवं चेव / [13 प्र.] भगवन् ! प्रकायिक जीव, अप्कायिक जीव को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [13 उ.] (हाँ, गौतम ! ) पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए / 14. एवं तेउ-बाउ-वणस्सइकाइयं / [14] इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी जानना चाहिए। 15. तेउक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइयं आणमति वा ? एवं जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणमति वा० ? तहेव / |15 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव पृथ्वीकायिकजीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [15 उ.] (गौतम ! ) यह सब पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए / विवेचन--एकेन्द्रिय जीवों की श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत सात सूत्रों (6 से 15 तक) में बताया गया है कि पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक र वनस्पतिकायिक जीवों को श्वासोच्छवास रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। इसी प्रकार अप्कायिकादि चारों स्थावर जीव भी पृथ्वीकायिकादि पांचों स्थावर जीवों को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं / इन पांचों के 25 पालापक (सूत्र) होते हैं / जैसे वनस्पति एक के ऊपर दूसरी स्थित हो कर उसके तेज को ग्रहण कर लेतो है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि भी अन्योन्य सम्बद्ध होने से उस रूप में श्वासोच्छ्वास (प्राणापान) आदि कर लेते हैं।' आणमति पाणमति : भावार्थ-प्राभ्यन्तर श्वास और उच्छ्वास लेता है। ऊससति नीससति - बाह्य श्वास और उच्छ्वास ग्रहण करते-छोड़ते हैं। 3 पृथ्वीकायिकादि द्वारा पृथ्वीकायिकादि को श्वासोच्छवास करते समय क्रिया-प्ररूपणा 16. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमाणे वा कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। 1. (क) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1781 (ख) भगवती. अ, वृत्ति, पत्र 492 2. बही, पत्र 492 3. वहीं, पत्र 492 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org