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________________ [व्याख्यान सप्तिसू 86] मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान जानना / किन्तु इनके सम्यक्त्व, प्रौघिकज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन पदों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं / शेष सब पूर्ववत् जानना / / 87, वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। 87 वाणव्यन्त र, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन असुरकुमारों के समान है। विवेचन-प्रायुष्यकर्मबन्ध की अपेक्षा से चतुर्भगीय चर्चा-सामान्यजीव द्वारा आयुष्यकर्मबन्ध के विषय में चार भंग बताये हैं। उनमें प्रथम भंग तो अभव्यजीव की अपेक्षा से है / जो जीव चरमशरीरी होगा, उसको अपेक्षा द्वितीय भंग है / तृतीय भंग उपशमक की अपेक्षा से है, क्योंकि उसने पहले आयु बांधा था, वर्तमानकाल में उपशम-अवस्था में प्रायु नहीं बांधता और उपशम-अवस्था से गिरने पर फिर प्रायु बांधेगा। चतुर्थ भंग क्षपक की अपेक्षा से है, उसने भूतकाल में (जन्मान्तर में) आयुष्य बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और न ही भविष्यकाल में आयुष्य बांधेगा। सलेश्वी से लेकर शुक्ललेश्यी जीत तक में चार भंग बताए हैं। उनमें से प्रथम भंग उसकी अपेक्षा से है जो निर्वाण को प्राप्त नहीं होगा। जो चरमशरीरीरूप से उत्पन्न होगा, उसकी अपेक्षा द्वितीय भंग है / अबन्ध-समय की अपेक्षा तृतीय भंग है और जो चरमशरीरी है, उसकी अपेक्षा चतुर्थ भंग है। इस प्रकार अन्य स्थानों में भी यथायोग्य रूप से घटित कर लेना चाहिए। शैलेशी-अवस्था को प्राप्त जीव तथा सिद्ध भगवान् अलेश्यी होते हैं। उनमें एकमात्र चतुर्थ भंग ही पाया जाता है, क्योंकि वे वर्तमान में आयुष्य का बन्ध नहीं करते और भविष्यत्काल में भी नहीं करेंगे / कृष्णपाक्षिक जीव में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है, क्योंकि अभव्यजीव की अपेक्षा से प्रथम भंग और अबन्धकाल की अपेक्षा तृतीय भंग है, क्योंकि वह वर्तमानकाल में आयुष्यकर्म नहीं बांधता, किन्तु भविष्यत्काल में बांधेगा। तृतीय और चतुर्थ भंग कृष्णपाक्षिक में नहीं होते, क्योंकि उसमें आयुष्यबन्ध का सर्वथा अभाव नहीं होता। शूक्लपाक्षिक और सम्यग्दृष्टि में चार भंग होते हैं, क्योंकि उसने पहले आयुष्य बांधा था, बन्धनकाल में बांधता है और प्रबन्धकाल के बाद फिर बांधेगा। इस अपेक्षा से यहाँ प्रथम भंग घटित होता है। चरमशरीरजीव की अपेक्षा द्वितीय, उपशम अवस्था की अपेक्षा तृतीय और क्षपकअवस्था की अपेक्षा चौथा भंग होता है। मिथ्यादृष्टि में चार भंग बताए हैं, अभव्य की अपेक्षा पहला भंग, भविष्य में चरमशरीर की प्राप्ति होने पर नहीं बांधेगा, अत: दूसरा भंग है / अबन्धकाल की अपेक्षा तीसरा भंग और चरमशरीरी की अपेक्षा चौथा भंग है है। सम्यगमिथ्यादष्टि (मिथदष्टि)जीव सम्यगमिथ्यादष्टि-अवस्था में आयू नहीं बांधता और कोई जीव चरमशरीरी हो जाए तो आयुष्य बांधेगा भी नहीं। इसलिए इसमें तीसरा और चौथा भंग घटित होता है। ज्ञानी जीवों में चार भंग पाए जाते हैं, जिन्हें पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिए / मन:पर्यवज्ञानी में दूसरे भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। उसने पहले प्रायु बांधा था, वर्तमान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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