________________ 88] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [33 प्र.] इस प्रकार ये बारह दण्डक कहने चाहिए [प्र.] भगवन् क्या जीव, जातिनामनिधत्त है ?, जातिनामनिधत्तायु है ?, क्या जीव, जातिनामनियुक्त हैं ?, जातिनामनियुक्तायु हैं ?, जातिगोत्रनिधत्त है ?, जातिगोत्रनिधत्तायु हैं ?, जातिगोत्रनियुक्त हैं ?, जातिगोत्रनियुक्तायु हैं ?, जातिनामगोत्र-निधत्त हैं ?, जातिनामगोत्रनिधत्तायु हैं ?, भगवन् ! क्या जीव जातिनामगोत्रनियुक्तायु हैं ? यावत् अनुभागनाम गोत्रनियुक्तायु हैं ? [33 उ.] गौतम ! जीव, जातिनामनिधत्त भी हैं, यावत् अनुभागनामगोत्रनियुक्तायु भी हैं। 34. दंडनो जाव वेमाणियाणं / [34] यह दण्डक यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विवेचन--जीवों के प्रायुष्यबन्ध के प्रकार एवं जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों को चौबीस दण्डकीय जीवों में प्ररूपणा प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 27 से 34 तक) में जीवों के प्रायुष्यबन्ध के 6 प्रकार, तथा चौबीस ही दण्डक के जीवों में जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों-बालापकों की प्ररूपणा की गई है। षड्विध श्रायुष्यबन्ध की व्याख्या-(१) जातिनामनिधत्तायु-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पांच प्रकार की जाति है, तद्रूप जो नाम (अर्थात्-जातिनाम रूप नाम कर्म को एक उत्तरप्रकृति अथवा जीव का एक प्रकार का परिणाम), वह जातिनाम है। उसके साथ निधत्त (निषिक्त या निषेक को–प्रतिसमय अनुभव में पाने के लिए कर्मपुद्गलों की रचना को--प्राप्त) जो प्रायु, उसे जातिनामनिधत्तायु कहते हैं। (2) मतिनामचित्तायु एवं (3) स्थितिनामनिधत्तायु-नैरयिक आदि चार प्रकार की गति' कहलाती है / अमुक भव में विवक्षित समय तक जीव का रहना स्थिति' कहलाती है। इस रूप आयु को क्रमशः 'गतिनामनिधत्तायु' और 'स्थितिनामनिधत्तायु' कहते हैं। / प्रस्तत सत्र में जातिनाम, गतिनाम और अवगाहनानाम का ग्रहण करने से केवल जाति, गति और अवगाहनारूप नामकर्मप्रकृति का कथन किया गया है। तथा स्थिति, प्रदेश और अनुभाग का ग्रहण होने से पूर्वोक्त प्रकृतियों की स्थिति आदि कही गई है। यह स्थिति जात्यादिनाम से सम्बन्धित होने से नामकर्म रूप ही कहलाती है। इसलिए यहाँ सर्वत्र 'नाम' का अर्थ 'नामकर्म' ही घटित होता है, अर्थात्-स्थितिरूप नाम-कर्म जो हो, वह स्थितिनाम' उसके साथ जो निधत्तायु, उसे 'स्थितिनामनिधत्तायु कहते हैं / (4) अवगाहनानामनिधत्तायु-जीव जिसमें अवगाहित होतारहता है, उसे 'अवगाहना' कहते हैं, वह है-औदारिक आदि शरीर / उसका नाम अवगाहनानाम, अथवा अवगाहनारूप जो परिणाम / उसके साथ निधत्तायु 'अवगाहनानामनिधत्तायु' कहलाती है / (5) प्रदेशनामनिधत्तायु-प्रदेशों का अथवा आयुष्यकर्म के द्रव्यों का उस प्रकार का नाम- परिणमन, वह प्रदेशनाम; अथवा प्रदेशरूप एक प्रकार का नामकर्म, वह है-- प्रदेशनाम ; उसके साथ निधतायु, 'प्रदेशनामनिधत्तायु' कहलाती है। (6) अनुभागनामनिधत्तायु-अनुभाग अर्थात् आयुष्य कर्म के द्रव्यों का विपाक, तद्रूप जो नाम (परिणाम), वह है- अनुभागनाम अथवा अनुभागरूप जो नामकर्म वह है-अनुभागनाम / उसके साथ निधत्त जो प्रायु, वह 'अनुभागनामनिधत्तायु' कहलाती है। __ आयुष्य जात्यादिनामकर्म से विशेषित क्यों ? --यहाँ आयुष्यबन्ध को विशेष्य और जात्यादि नामकर्म को विशेषण रूप से व्यक्त किया गया है, उसका कारण यह है कि जब नारकादि अायुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org