SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1032
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम शतक : उद्देशक-३-३०] [ 431 [3] इस प्रकार अपनी-अपनी लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों का वर्णन कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ एक-एक द्वीप के नाम से एक-एक उद्देशक कहना चाहिए / इस प्रकार ये सब मिल कर इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों के अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। _हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर भगवान् गौतम यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--अन्तर्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य---ये द्वीप लवणसमुद्र के अन्दर होने से 'अन्तर्वीप' कहलाते हैं। इनके रहने वाले मनुष्य अन्तीपक कहलाते हैं। यों तो उत्तरवर्ती और दक्षिणवर्ती समस्त अन्तर्दीप छप्पन होते हैं, परन्तु 'दाहिणिल्लाण' कह कर दक्षिणदिशावर्ती अन्तीपों के सम्बन्ध में ही प्रश्न है और वे 28 हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं१. एकोरुक, 2. प्राभासिक, 3. लांगलिक, 4. वैषाणिक, 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण 7. गोकर्ण, 8. शष्कुलीकर्ण, 6. आदर्शमुख, 10. मेण्ढमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख, 13. अश्वमुख, 14. हस्तिमुख, 15. सिंहमुख, 16. व्याघ्रमुख, 17. अश्वकर्ण, 18. सिंहकर्ण, 16. अकर्ण, 20. कर्णप्रावरण, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युन्मुख, 24. विद्युद्दन्त, 25. घनदन्त, 26. लष्ट दन्त, 27, गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त द्वीप। इन्हीं अन्तर्वीपों के नाम पर इनके रहने वाले मनुष्य भी इसी नाम वाले कहलाते हैं तथा एकोरुक आदि 28 अन्तर्वीपों में से प्रत्येक अन्तर्वीप के नाम से एक-एक उद्देशक है।' जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश-'जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण में' इतना मूल में कह कर मागे जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश किया गया है, कई प्रतियों में--"चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स . ...."सव्वनो समंता संपरिक्खिते; दोण्ह वि पमाणं वण्णयो य, एवं एएणं कमेणं;" इत्यादि जो पाठ मिलता है, वह भगवतीसूत्र का मूलपाठ नहीं है, जीवाभिगमसूत्र का है। इसी कारण हमने कोष्ठक में उसका अर्थ दे दिया है। यहाँ इतना ही मूलपाठ स्वीकृत किया है-"एवं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे ... / " जीवाभिगम के पाठ में वेदिका, वनखण्ड, कल्पवृक्ष, मनुष्य-मनुष्यणी का वर्णन किया गया है। __ अन्तर्वीपक मनुष्यों का आहार-विहार आदि-अन्तर्वीपक मनुष्यों में आहारसंज्ञा एक दिन के अन्तर से उत्पन्न होती है / वे पृथ्वीरस, पुष्प और फल का आहार करते हैं। वहाँ की पृथ्वी का स्वाद खांड जैसा होता है। वृक्ष ही उनके घर होते हैं। वहाँ ईट-चने आदि के मकान नहीं होते / उन मनुष्यों की स्थिति पल्योपम के असंख्यावे भाग होती है। छह मास आयुष्य शेष रहने पर वे एक साथ पुत्र-पुत्रीयुगल को जन्म देते हैं / 81 दिन तक उनका पालन-पोषण करते हैं। तत्पश्चात् मर कर वे 1. (क) भगवती. (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1577 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 428 (ग) पण्णवणासुत्त पद 1, भा. 1, (महावीर विद्यालय) मू. 95, पृ. 55 2. (क) विहायपणत्तिसुक्तं, मूलपाठ टिप्पण (म. वि.) भा. 1, पृ. 408 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 428 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy