________________ 432 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवगति में उत्पन्न होते हैं। इसीलिए कहा गया है - 'देवलोकपरिग्गहा' अर्थात् वे देवगतिगामी होते हैं।' वे अन्तर्वीप कहाँ ? ---जीवाभिगमसूत्र के अनुसार-जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत की सीमा बाँधने वाला चुल्ल हिमवान पर्वत है / वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवणसमुद्र को स्पर्श करता है / इसी पर्वत के पूर्वी और पश्चिमी किनारे से लवणसमुद्र में, चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में तीन-तीन सौ योजन आगे जाने पर एकोरुक आदि एक-एक करके चार अन्तींप आते हैं / ये द्वीप गोल हैं / इनकी लम्बाई-चौड़ाई तीन-तीन सौ योजन की है, तथा प्रत्येक की परिधि 946 योजन से कुछ कम है। इन द्वीपों से आगे 400-400 योजन लवणसमुद्र में जाने पर चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े हयकर्ण प्रादि पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवाँ, ये चार द्वीप पाते हैं / ये भी गोल हैं। इनकी परिधि 1265 योजन से कुछ कम है। इसी प्रकार इन से आगे क्रमश: पांच सौ, छह सौ, सात सौ, पाठ सौ एवं नौ सौ योजन जाने पर क्रमश: 4-4 द्वीप पाते हैं, जिनके नाम पहले बता चुके हैं। इन चार-चार अन्तर्वीपों की लम्बाईचौड़ाई भी क्रमश: पांच सौ से लेकर नौ सौ योजन तक जाननी चाहिए। ये सभी गोल हैं। इनकी परिधि तीन गुनी से कुछ अधिक है / इसी प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में ये 28 अन्तर्वीप हैं / छप्पन अन्तर्वीप-जिस प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में 28 अन्तर्वीप कहे गए हैं, इसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी 28 अन्तर्वीप हैं, जिनका वर्णन इसी शास्त्र के 10 वे शतक के 7 वें से लेकर 34 वें उद्देशक तक 28 उद्देशकों में किया गया है / उन अन्तर्दीपों के नाम भी इन्हीं के समान हैं / कठिन शब्दों के अर्थ-दाहिणिल्लाणं = दक्षिण दिशा के / चरिमंताओ= अन्तिम किनारे से / उत्तर-पुरथिमेणं = ईशानकोण = उत्तरपूर्व दिशा से / ओगोहित्ता = अवगाहन करने (आगे जाने) पर / एगूणवण्णे = उनचास / किचिक्सेिसूणे = कुछ कम / परिक्खेवेणं = परिधि (घेरे) से युक्त। सव्वओ समंता = चारों ओर / संपरिक्खित्ते परिवेष्टित, घिरा हुा / सएणं = अपने / // नवम शतक : तीसरे से तीसवें उद्देशक तक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 429 (ख) विहायपणत्तिमुत्तं भा. 1, पृ. 408 2. (क) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उ. 1, पृ. 144 से 156 तक / (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 429 / 3. भगवती. शतक 10, उ. 7 से 34 तक मूलपाठ / 4. (क) भगवती. (पं, घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1577 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 429 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org