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________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [413 (असंख्यात समय), (3) प्राणापाण (पानपान = उच्छवास-नि:श्वास, संख्यात पावलिकाओं का एक उच्छवास और इतनी ही पावलिकाओं का एक निःश्वास), (4) थोवं (स्तोक-सात पानप्राणों अथवा प्राणों का एक स्तोक), (5) लवं = (सात स्तोकों का एक लव), (6) मुहत्तं (मुहूर्त = 77 लव, अथवा 3773 श्वासोच्छ्वास, या दो घड़ी अथवा 48 मिनट का एक मुहूर्त), (7) अहोरत्तं--(अहोरात्र-३० मुहर्त का एक अहोरात्र), (8) पक्खं (पक्ष = 15 दिनरात-अहोरात्र का एक पक्ष), (9) मासं (मासदो पक्ष का एक महीना), और उऊ (ऋतु =दो मास की एक ऋतु-मौसम)। अयन से ले कर सागरोपम तक-प्रयणं (अयन - तीन ऋतुओं का एक), संवच्छरं (दो अयन का एक संवत्सर), जुए (युग-पांच संवत्सर का एक युग), वाससतं (बीस युगों का एक वर्षशत), वाससहस्सं (दश वर्षशत का एक वर्ष-सहस्र-हजार), वाससतसहस्सं (100 वर्षसहस्रों का एक वर्षशतसहस्र-एक लाख वर्ष), पुच्वंग (84 लाख वर्षों का एक पूर्वांग), पुवं (84 लाख को 84 लाख से गुणा करने से जितने वर्ष हो, उतने वर्षों का एक पूर्व), तुडियंग (एक पूर्व को 84 लाख से गुणा करने से एक त्रुटितांग), तुडिए (एक त्रुटितांग को 84 लाख से गुणा करने पर एक त्रुटित), इसी प्रकार पूर्व-पूर्व की राशि को 84 लाख से गुणा करने पर उत्तर-उत्तर की समय राशि क्रमशः बनतो है / वह इस प्रकार है-अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका (194 अंकों की संख्या), पल्योपम और सागरोपम (ये दो गणना के विषय नहीं है, उपमा के विषय हैं, इन्हें उपमाकाल कहते हैं ) / ___ अवपिणीकाल-जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर हीन (न्यून) होते जाते हैं, आयु और अवगाहना घटती जाती है, तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार—पराक्रम का क्रमश: ह्रास होता जाता है, पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं एवं शुभ भावों में कमी और अशुभभावों में वृद्धि होती जाती है, उसे अवसपिणी काल कहते हैं / यह काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है / इसके 6 विभाग (आरे) होते हैं। एक प्रकार से यह अर्द्ध कालचक्र है / अवपिणीकाल का प्रथम विभाग अर्थात् पहले पारे के लिए कहा गया है—'पढमा प्रोसप्पिणी'। उत्सपिणीकाल-जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुभ होते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है; उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार---पराक्रम की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, तथा पुद्गलों के वर्णादि शुभ होते जाते हैं, अशुभतम भाव क्रमश: अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं, एवं उच्चतम अवस्था आ जाती है, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं / यह काल भो दस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसके भी 6 विभाग (पारे) होते हैं, यह भी अर्द्ध कालचक्र कहलाता है / ' लवरणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्क रार्द्ध में सूर्य के उदय-अस्त तथा दिवसरात्रि का विचार 22. [1] लवणे गं भंते ! समुद्दे सूरिया उदोचि-पाईणमुग्गच्छ जच्चेव जंबुद्दीवस्स 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 211 (ख) भगवतीसूत्रम् (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 155. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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