________________ 4121 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत चाहिए; तथैव युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हुर्कांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनूपुरांग, अर्थना अयुताग, अयूत, नयूतांग, नयूत, प्रयुतांग, प्रयूत, चूलिकांग, चूलिका. शीर्षप्रहेलिकांग. शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम; (इन सब) के सम्बन्ध में भी (पूर्वोक्त प्रकार से) कहना चाहिए। 20. जदा णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे दाहिणड्ढे पढमा प्रोसप्पिणी पडिवज्जति तदा गं उत्तरड्ढे वि पढमा प्रोसप्पिणी पतिवज्जइ ? जता णं उत्तरड्ढे वि पडिवज्जइ तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चस्थिमेणं णेवस्थि प्रोसप्पिणी वस्थि उस्सप्पिणी, प्रवट्टिते णं तत्थ काले पत्रत्ते समकाउसो !? हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो ! [20 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप नामक द्वीप के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणो होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है ? ; और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत के पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती?, उत्सपिणी नहीं होती ? , किन्तु हे आयुष्मान् श्रमणपुंगव ! क्या वहाँ अवस्थित काल कहा गया है ? [20 उ.) हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है / यावत् (श्रमणपुंगव ! तक) पूर्ववत् सारा वर्णन कह देना चाहिए। 21. जहा प्रोसप्पिणीए पालावनो भणितो एवं उस्सप्पिणीए वि भाणितव्यो। [21] जिस प्रकार अवपिणी के विषय में आलापक कहा है, उसी प्रकार उत्सर्पिणी के विषय में भी कहना चाहिए / विवेचन-विविध दिशाओं एवं प्रदेशों (क्षेत्रों) में ऋतु से लेकर उत्सर्पिणी काल तक के अस्तित्व की प्ररूपणा प्रस्तुत सात सूत्रों में वर्षा आदि ऋतुत्रों के विविध दिशाओं और प्रदेशों में अस्तित्व की प्ररूपणा करके अहोरात्र, पानपान, मुहूर्त आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में अतिदेश किया गया है / तदनन्तर अयन, युग, वर्षशत आदि से लेकर सागरोपमपर्यन्त तथा अवसर्पिणी-उत्सपिणी काल तक के पूर्वादि दिशामों तथा प्रदेशों में अस्तित्व का अतिदेशपूर्वक प्ररूपण किया गया है / विविध कालमानों की व्याख्या वासाणं = वर्षाऋतु का, हेमंताणं = हेमन्तऋतु का, गिम्हाण = ग्रीष्मऋतु का / ऋतु भी एक प्रकार का कालमान है। वर्षभर में यों तो 6 ऋतुएँ मानी जाती हैंवसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर / परन्तु यहाँ तीन ऋतुओं का नामोल्लेख किया गया है, इसलिए चार-चार महीने की एक-एक ऋतु मानी जानी चाहिए। अणंतर-पुरक्खडसमयंसि = दक्षिणार्द्ध में प्रारम्भ होने वाली वर्षाऋतु प्रारम्भ की अपेक्षा अनन्तर (तुरन्त पूर्व) भविष्यत्कालीन समय को अनन्तरपुरस्कृत समय कहते हैं। अणंतरपच्छाकडसमयसि = पूर्व और पश्चिम महाविदेह में प्रारम्भ होने वाली वर्षा ऋतु प्रारम्भ की अपेक्षा अनन्तर (तुरंत बाद के) अतीतकालीन समय को अनन्तर पश्चात्कृत समय कहते हैं। समय (अन्यन्त सूक्ष्मकाल) से लेकर ऋतु तक काल के 10 भेद होते हैं-(१) समय, (काल का सबसे छोटा भाग, जिसका दूसरा भाग न हो सके), (2) श्रावलिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org