________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [411 प्राणापाणण वि 3, थोवेण वि 4, लवेण वि 5, महत्तण वि 6, अहोरत्तेण वि 7, पक्खेण वि 8, मासेण वि, उउणा वि 10 / एतेसि सव्वेसि जहा समयस्स प्रभिलावो तहा भाणियन्यो / [16] जिस प्रकार वर्षाऋतु के प्रथम समय के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वर्षाऋतु के प्रारम्भ की प्रथम प्रावलिका के विषय में भी कहना चाहिए / इसी प्रकार प्रान-पान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु; इन सबके विषय में भी समय के अभिलाष की तरह कहना चाहिए। 17. जदा णं भंते ! जंबु० दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिबज्जति ? जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि 20, गिम्हाण वि 30 भाणियन्वो जाय उऊ / एवं एते तिग्नि वि / एतेति तीसं पालावगा भाणियव्वा / 17 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी हेमन्तऋतु का प्रथम समय होता है; और जब उत्तरार्द्ध में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व-पश्चिम में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय अनन्तर पुरस्कृत समय में होता है ? इत्यादि प्रश्न है। [17 उ.] हे गौतम ! इस विषय का सारा वर्णन वर्षा ऋतु के (अभिलाप) कथन के समान जान लेना चाहिए। इसी तरह ग्रीष्मऋतु का भी वर्णन कह देना चाहिए। हेमन्त ऋतु.और ग्रीष्मऋत् के प्रथम समय की तरह उनको प्रथम आवालका, यावत् ऋतपयन्त सारा वणन कहना चाहिए। इस प्रकार वर्षाऋत, हेमन्त ऋत, और ग्रीष्मऋत; इन तीनों का एक सरीखा वर्णन है। इसलिए इन तीनों के तीस पालापक होते हैं / 18. जया गं भंते ! जंबु० मंदरस्स पब्धयस्स दाहिणड्ढे पढने प्रयणे पडिवज्जति तदा णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ ? जहा समएणं प्रभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियन्वो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवति / [18 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से दक्षिणार्द्ध में जब प्रथम 'अयन' होता है, तब क्या उत्तराद्धं में भी प्रथम 'अयन' होता है ? [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार 'समय' के विषय में पालापक कहा, उसी प्रकार 'अयन' के विषय में भी कहना चाहिए; यावत् उसका प्रथम समय अनन्तर पश्चात्कृत समय में होता है; इत्यादि सारा वर्णन कहना चाहिए / 16. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियन्यो, जुएण वि, वाससतेण वि, वाससहस्सेण वि, वाससतसहस्सेण वि, पुव्वंगेण वि, पुग्वेण वि, सुडियंगेण वि, तुडिएण वि, एवं पुन्बे 2, तुडिए 2, अडडे 2, अववे 2, हूहूए 2, उप्पले 2, पउमे 2, नलिणे 2, अत्यणि उरे 2, प्रउए 2, णउए 2, पउए 2, चूलिया 2, सोसपहेलिया 2, पलिनोवमेण वि, सायरोवमेण वि, माणितम्वो। [16] जिस प्रकार 'अयन' के सम्बन्ध में कहा; उसी प्रकार संवत्सर के विषय में भी कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org