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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [249 'शेष' जीव बहुत होते हैं --उपर्युक्त रयिकों के अतिरिक्त शेष नैरयिक जीव सदा प्रभूत संख्या में रहते हैं, इसलिए उन्हें 'संख्यात' कहना चाहिए।' रत्नप्रभा के असंख्यातविस्तृत नरकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता की संख्या से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 9. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया ने रतिया उववज्जंति? 1, जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उववज्जति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं असंखेज्जा नेरइया उववज्जंति 1 / एवं जहेव संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा [सु० 6-7-8] तहा असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा भागियब्वा / नवरं असंखेज्जा भाणियन्वा, सेसं तं चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता 49 / "नाणत्तं लेस्सासु", लेस्साओ जहा पढमसए (स० 1 उ० 5 सु० 28) / नवरं संखेज्जवित्थडेसु वि असंखेज्जवित्थडेसु वि श्रोहिनाणी ओहिदसणी य संखेज्जा उन्वट्टावेयवा, सेसं तं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में (1) एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं; (2-36) यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में एक समय में, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं / जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों के विषय में (सू. 6-7-8 में उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता) ये तीन पालापक (गमक) कहे गए हैं, उसी प्रकार असंख्यात योजन वाले नरकों के विषय में भी तीन पालापक कहने चाहिए। इनमें विशेषता यह है कि 'संख्यात' के बदले 'असंख्यात' कहना चाहिए। शेष सब यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गए हैं, यहाँ तक पूर्ववत् कहना चाहिए। इनमें लश्याओं में नानात्व (विभिन्नता) है। लेश्यासम्बन्धी कथन प्रथम शतक (उ. 5 सू. 28) के अनुसार कहना चाहिए तथा विशेष इतना ही है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्वर्तन करते हैं, ऐसा कहना चाहिए / शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए / / विवेचन-असंख्यातयोजन विस्तृत नरकावासों में उत्पादन, उद्वर्तन और सत्ता को प्ररूपणासंख्यात योजन विस्तारवाले नरकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता (विद्यमानता), इन तीनों आलापकों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तत नरकों के ना की उत्पत्ति आदि तीनों का कथन करना चाहिए / संख्यात के बदले यहाँ 'असंख्यात' शब्द का प्रयोग करना चाहिए / 2 -.. - -... . . -- 1, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2149 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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