________________ 250] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी की संख्यात उद्वर्तना—क्योंकि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थकर प्रादि ही उद्वर्तन करते हैं और वे स्वल्प होते हैं, इसलिए इन दोनों के उद्वर्तन के विषय में 'संख्यात' ही कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, जो सुगम है।' लेश्यासम्बन्धी कथन इस विषय में प्रारम्भ की दो नरकपृथ्वियों की अपेक्षा से, तृतीय आदि नरकवियों की लेश्याओं में नानात्व होता है. अतः यहाँ कहा गया है कि लेश्यानों का कथन जिस प्रकार प्रथम शतक के पंचम उद्देशक, सू. 28 में है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। शर्कराप्रभादि छह नरकश्वियों के नरकावासों की संख्या तथा संख्यात-असंख्यातविस्तृत नरकों में उत्पत्ति, उद्वर्तना तथा सत्ता की संख्या का निरूपण 10. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास० पुच्छा। गोयमा ! पणुवीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [10 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे हैं ? इत्यादि पश्न / [10 उ.] गौतम ! (उसमें पच्चीस लाख नरकवास कहे गए हैं / 11. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि / नवरं असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णति, सेसं तं चेव / [11 प्र.] भगवन् ! वे नरकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, अथवा असंख्यात योजन विस्तार वाले? [11 उ.] गौतम जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, इन तीनों ही आलापकों में 'असंज्ञा' नहीं कहना चाहिए / शेष सभी (वक्तव्यता) पूर्ववत् (कहनी चाहिए) / 12. वालुयप्पभाए णं० पुच्छा। गोयमा! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा पन्नता / सेसं जहा सक्करप्पभाए / “णाणत्तं लेसासु", लेसाओ जहा पढमसए (स० 1 उ० 5 सु० 28) / [12 प्र.] भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे गए हैं ? [12 उ. गौतम ! बालुकाप्रभा में पन्द्रह लाख नरकावास कहे गए हैं / शेष सब कथन शर्कराप्रभा के समान करना चाहिए / यहाँ लेश्याओं के विषय में विशेषता है / लेश्या का कथन प्रथम शतक के पंचम उद्देशक के समान कहना चाहिए। 13. पंकप्पभाए० पुच्छा। गोयमा ! दस निरयावाससतसहस्सा० / एवं जहा सक्करप्पभाए / नवरं प्रोहिनाणी ओहिदसणी य न उध्घट्ट ति, सेसं तं चेव / 1. भगवती., अ. वत्ति, पत्र 600 2. वही, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org