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________________ 248] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (24) (वहाँ) नपुसकवेदी संख्यात कहे गए हैं। (25) इसी प्रकार क्रोधकषायी भी संख्यात होते हैं / (26) मानकषायी नैरयिक असंज्ञी नै रयिकों के समान (कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। होते हैं तो उत्कृष्ट संख्यात होते हैं) / (27-28) इसी प्रकार यावत् (मायाकषायी और) लोभकषायी नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिए। (26-33) श्रोवेन्द्रिय उपयोग वाले नैरयिकों से लेकर यावत् स्पर्शेन्द्रियोपयोगयुक्त नरयिक संख्यात कहे गए हैं। (34) नो-इन्द्रियोपयोगयुक्त नारक, असंज्ञी नारक जीवों के समान (कदाचित होते हैं और कदाचित नहीं होते। (35-38) मनोयोग अनाकारोपयोग वाले नैयिक संख्यात कहे गए हैं। (40) अनन्तरोपपन्नक नै रयिक कदाचित होते हैं, कदाचित् नहीं होते; यदि होते हैं तो असजी जीवों के समान (जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं / ) (41) परम्परोपपन्नक नैरयिक संख्यात होते हैं। जिस प्रकार अनन्त रोपपन्नक के विषय में कहा गया, उसी प्रकार (42) अनन्तरावगाढ, (44) अनन्तराहारक और (46) अनन्तरपर्याप्तक के विषय में कहना चाहिए। (43, 45, 47, 48, 46) जिस प्रकार परम्परोपपन्नक का कथन किया गया है, उसी प्रकार परम्परावगाढ, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्नक, चरम और अचरम (का कथन करना चा विवेचन–पूर्वोक्त दो सूत्रों में बताया गया था कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में विविध विशेषणविशिष्ट नैरयिक एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं और कितने उद्वर्त्तते हैं ? , इस सूत्र में बताया गया है कि वहाँ सत्ता में कितने नैरयिक विद्यमान रहते हैं ? अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक प्रादि शब्दों के अर्थ-जिन नारकों को उत्पन्न हुए अभी एक समय ही हरा है, उन्हें 'अनन्तरोपपन्नक' और जिन्हें उत्पन्न हुए दो, तीन आदि 'समय' हो चुके हैं, उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। किसी एक विवक्षित क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हए (अवगाहन करके स्थित) जीवों को अनन्तरावगाढ और विवक्षित क्षेत्र में द्वितीय प्रादि समय में रहे हुए जीवों को परम्परावगाढ कहते हैं / आहार ग्रहण किये हुए जिन्हें प्रथम समय हुया है, वे अनन्तराहारक और जिन्हें द्वितीय आदि समय हो गये हैं, उन्हें परम्पराहारक कहते हैं। जिन जीवों को पर्याप्त हुए प्रथम समय ही है, वे अनन्तरपर्याप्तक और जिन्हें पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो चुके हैं, वे परम्परपर्याप्तक कहलाते हैं। जिन जीवों का नारकभव अन्तिम है, अथवा जो नारकभव के अन्तिम समय में वर्तमान हैं, वे चरम नैरयिक और इनसे विपरीत को अचरम नैरयिक कहते हैं।' असंज्ञो आदि नैरयिक कदाचित् क्यों ? —जो असंज्ञी तिर्यञ्च या मनुष्य मर कर नरक में नै रयिक रूप से उत्पन्न होते हैं, वे अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक अमंज्ञो होते हैं, (फिर संज्ञी हो जाते हैं) ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं। इसलिए कहा गया है कि-रत्नप्रभापृथ्वी में असंज्ञा कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। इसी प्रकार मानकषायोपयुक्त, मायाकषायोपयुक्त, लोभकषायोपयुक्त और नो-इन्द्रियोपयुक्त तथा अनन्तपिपन्नक अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक नै रयिक कदाचित् होते हैं। इसलिए कहा गया है कि ये नै रयिक कदाचित होते हैं और कदाचित् नहीं होते / / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2147 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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