________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचम-विनय के भेद-प्रभेद और स्वरूप --जिसके द्वारा ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का विनयन-विनाश हो, उसे 'विनय' कहते हैं / लोकव्यवहार में अपने से बड़े और गुरुजनों का देश-काल के अनुसार सत्कार सम्मान एवं भक्ति-बहुमान करना 'विनय' कहलाता है / कहा है 'कर्मणां दाग विनयनाद, विनयो विदुषां मतः।' अपवर्ग-फलाढ्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् / / अर्थात ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह 'विनय' कहलाता है। विद्वानों का मत है कि मोक्ष-रूपी फल से समृद्ध धर्मतरु का यह मूल है। सामान्यतया विनय के 7 भेद हैं. जिनका उल्लेख मल में किया गया है। इन सातों के अवान्तरभेद 13. | सातों के अवान्तरभेद 134 होते हैं / जैसेज्ञानविनय के 5 भेद, दर्शनविनय के 55 भेद, चारित्रविनय के 5 भेद, मनविनय के 24, वचनविनय के 24 और कायविनय के 14 भेद तथा लोकोपचारविनय के 7 भेद; यों कुल मिला कर 134 भेद हुए। १ज्ञानविनय---ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना, उनके प्रति बहुमान दिखाना, पित तत्त्वों पर सम्यक चिन्तन-मनन करना तथा विधिपूर्वक नम्र होकर ज्ञान ग्रहण करना, शास्त्रीय तथा तात्त्विक ज्ञान का अभ्यास करना 'ज्ञान-विनय है / इसके 5 भेद हैं-(१) मतिज्ञानविनय, (2) श्रुतज्ञानविनय, (3) अवधिज्ञानविनय, (4) मनःपर्यवज्ञानविनय और (5) केवलज्ञान विनय / २–दर्शनविनय-अरिहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और केवलिभाषित सद्धर्म, इन तीन तत्त्वों पर श्रद्धा रखना दर्शनविनय है / अथवा सम्यग्दर्शन-गुण में अधिक ( आगे बढ़े हुए) साधकों की शुश्रूषादि करना तथा सम्यग्दर्शन के प्रति विनय-भक्ति और श्रद्धा रखना दर्शनविनय है। दर्शनविनय के सामान्यतया दो भेद हैं-शुश्रुषा-विनय और अनाशातना-विनय / शुश्रूषा-विनय के दस भेद हैं, यथा-(१) अभ्युत्थान-गुरुदेव या अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ रत्नाधिक सन्त पधार रहे हों, तब उन्हें देखते ही खड़े हो जाना, (2) आसनाभिग्रह- उन्हें इस प्रकार प्रासन-ग्रहण के लिए आमंत्रित करना कि पधारिये, आसन पर विराजिये, (3) आसन-प्रदान-बैठने के लिए प्रासन देना, (4) सत्कार, (5) सम्मान, (6) कीर्ति-कर्म- उनके गुणगान करना, (7) अंजलि - उन्हें करबद्ध हो कर प्रणाम करना, (8) अनुगमनता-लौटते समय कुछ दूर तक पहुँचाने जाना, (6) पर्युपासनता-उनकी पर्युपासना (सेवा) करना और (10) प्रतिसंसाधनता- उनके वचन को शिरोधार्य करना / (1) अरिहन्त, (2) अरिहन्त-प्ररूपिन धर्म, (3) प्राचार्य, (4) उपाध्याय, (5) स्थविर, (6) कुल, (7) गण, (8) संघ, (6) क्रिया और (10) मार्मिक का विनय, प्रकारान्तर से शुश्रूषाविनय के ये दस भेद भी किये गये हैं। प्रात्मा, परलोक, मोक्ष आदि हैं, ऐसी प्ररूपणा करना क्रियाविनय है / अनाशातना-दर्शनविनय- सम्यग्दर्शन और सम्यादर्शनी की आशातना न करना, अनाशातना-विनय है / इसके 45 भेद हैं। अरिहन्त भगवान्, अर्हत्प्ररूपित धर्म, प्राचार्य, उपाध्याय प्रादि पन्द्रह की प्राशातना न करना, अर्थात (1) इनकी विनय करना, (2) भक्ति करना और (3) गुणगान करना, पूर्वोक्त 15 के प्रति तीन कार्यों के करने से 45 भेद होते हैं / हाथ जोड़ना आदि बाह्य आचारों को भक्ति', हृदय में श्रद्धा और प्रीति रखने को 'बहुमान' तथा गुणकीर्तन करने या गुण-ग्रहण करने को 'गुणानुवाद' (वर्ण वाद) कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org