________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) 232. से कि तं पसत्थकायविणए? पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-आउत्तं गमणं, माउत्तं ठाणं, आउत्तं निसीयणं, आउत्तं तुयट्टणं, पाउत्तं उल्लंघणं, पाउत्तं पल्लंघणं, पाउत्तं सन्विदियजोगजुजणया। से तं पसस्थकायविणए। [232 प्र.] (भगवन् ! ) प्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ? [232 उ.] (गौतम ! ) प्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है / यथा--प्रायुक्त गमन (यतनापूर्वक गमन), आयुक्त स्थान (यतनापूर्वक ठहरना या खड़े रहना), आयुक्त निषीदन (सावधानी पूर्वक करवट बदलना, लेटना या सोना), प्रायुक्त उल्लंघन (सावधानीपूर्वक लांघना), आयुक्त प्रलपन (सावधानी से बार-बार या जोर से लाँघना) और आयुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुजनता (सभी इन्द्रियों और योगों को सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना) / यह हुमा प्रशस्तकायविनय का वर्णन / . 233. से कितं अध्पसस्थकायविणए ? अप्पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-प्रणाउत्तं गमणं, जाव प्रणाउत्तं सबिदियजोगजुजणया। से तं अप्पसत्थकाविणए / से तं कायविणए / 233 प्र.। (भगवन् ! ) अप्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ? (233 उ. (गौतम ! ) अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है। यथा—अनायुक्त गमन यावत् अनायुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुंजनता (असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति करना ) / यह हुआ अप्रशस्तकायविनय का वर्णन / साथ ही कायविनय का वर्णन पूर्ण हुआ / 234. से कि तं लोगोवयारविणए ? लोयोवयारविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-अब्भासवत्तियं, परछंदाणुवत्तियं, कज्जहेतु, कयपडिकतया, अत्तगवेसणया, देसकालण्णया, सम्वत्थेसु अपडिलोमया। से तं लोगोवयारविणए। से तं विणए। [234 प्र.] (भगवन् ! ) लोकोपचारविनय के कितने प्रकार हैं ? [234 उ.] (गौतम !) लोकोपचारविनय सात प्रकार का कहा गया है। यथा--- (1) अभ्याशवृत्तिता (गुरु ग्रादि के सानिध्य में रहना, अथवा अभ्यास (अध्ययन) में चित्तवृत्ति को एकान करना), (2) परच्छन्दानुवतिता (गुरु आदि बड़ों के अधीनस्थ (आज्ञापरायण) होकर कार्य करना), (3) कार्य हेतु (गुरु प्रादि द्वारा किये हुए ज्ञानदानादि कार्य के लिए उन्हें विशेष मानना तथा उन्हें ग्राहारादि लाकर देना), (4) कृत-प्रतिक्रिया (अपने पर किये हुए उपकार के बदले प्रत्युपकार करना (बदला चुकाना) अथवा आहारादि द्वारा गुरु की सेवा-शुश्रूषा करने से वे प्रसन्न होंगे और उससे वे मुझे ज्ञान सिखायेंगे, ऐसा समझ कर उनकी विनय-भक्ति करना), (5) आर्तगवेषणता (रुग्ण, अशक्त एवं पीड़ित साधुनों की सार-संभाल करना), (6) देश-कालज्ञता (देश और काल देख कर कार्य करना) और (7) सर्वार्थ-अप्रतिलोमता (सभी कार्यों में गुरुदेव के अनुकूल प्रवत्ति करना ) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org