________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जहा बितियसए अस्थिउद्देसए लोयागासे (स.२ उ. 10 सु. 11), नवरं रूबी सत्तविहा जाव अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, नो आगासस्थिकाए, आगासस्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए / सेसं तं चेव / [15 प्र.] भगवन् ! क्या लोक में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! जिस प्रकार दूसरे शतक के दसवें (अस्ति) उद्देशक (सू. 11) में लोकाकाश के विषय में जीवादि का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए / ) विशेष इतना ही है कि यहाँ अरूपी के सात भेद कहने चाहिए; यावत् अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और श्रद्धा-समय / शेष पूर्ववत् जानना चाहिए / 16. अलोए णं भंते ! किं जीवा ? एवं जहा अस्थिकायउद्देसए अलोगागासे (स. 2 उ. 10 सु. 12) तहेव निरवसेसं जाव अणंतभागूणे। [16 प्र.] भगवन् ! क्या अलोक में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! दूसरे शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक (सू. 12) में जिस प्रकार अलोकाकाश के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए; यावत् वह आकाश के अनन्तवें भाग न्यून है। विवेचन–अधोलोक आदि में जीव आदि का निरूपण-प्रस्तुत 5 सूत्रों (12 से 16 तक) में अधोलोक, तिर्यग्लोक, ऊर्ध्वलोक, लोक और अलोक में जीवादि के अस्तित्व-नास्तित्व का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-अधोलोक और तिर्यग्लोक में जीव, जीव के देश, प्रदेश तथा अजीव, अजीव के देश, प्रदेश और श्रद्धा-समय, ये 7 हैं, किन्तु ऊर्ध्वलोक में सूर्य के प्रकाश से प्रकटित काल न होने ने अद्धासमयको छोड़ कर शेष 6 बोल हैं / लोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों अखण्ड होने से इन दोनों के देश नहीं हैं। इसलिए धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। लोक में आकाशास्तिकाय सम्पूर्ण नहीं, किन्तु उसका एक भाग है। इसलिए कहा गया-- आकाशास्तिकाय का देश तथा उसके प्रदेश हैं / लोक में काल भी है। अलोक में एकमात्र अजीवद्रव्य का देशरूप अलोकाकाश है, वह भी अगुरुलघु है / वह अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त प्रकाश के अनन्तवें भाग न्यून है / पूर्वोक्त सातों बोल अलोक में नहीं हैं / ' अधोलोकादि के एक प्रदेश में जीवादि को प्ररूपणा 17. अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 524 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org