________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [55 गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जीवपदेसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपदेसा वि। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा; अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, अधवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा; एवं ममिल्लविरहिओ जाव अणिदिएसु जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिदियाण देसा / जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपएसा, अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियस्स पएसा, अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिरो जाव पंचिदिएसु, अणिदिएतु तिय भंगो। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा -रूवी अजीवा य, अरूवी अजीवा य / रूवी तहेव / जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा---नो धम्मस्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे 1, धम्मस्थिकायस्स पदेसे 2, एवं अधम्मस्थिकायस्स वि 3-4, अद्धासमाए / [17 प्र.] भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक के एक प्राकाशप्रदेश में क्या जीव हैं; जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं या अजीव के प्रदेश हैं ? [17 उ.] गौतम ! (वहाँ) जीव नहीं, किन्तु जीवों के देश हैं, जीवों के प्रदेश भी हैं, तथा अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीबों के प्रदेश भी हैं। इनमें जो जीवों के देश हैं, वे नियम से (1) एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, (2) अथवा एकेन्द्रियों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का एक देश है, (3) अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव के देश हैं; इसी प्रकार मध्यम भंग-रहित (एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव के देश--इस मध्यम भंग से रहित), शेष भंग, यावत् अनिन्द्रिय तक जानना चाहिए; यावत अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं। इनमें जो जीवों के प्रदेश हैं. वे नियम से एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों का प्रदेश और द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं। इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रिय तक प्रथम भंग को छोड़ कर दो-दो भंग कहने चाहिए; अनिन्द्रिय में तीनों भंग कहने चाहिए। उनमें जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के हैं यथा-रूपी अजीव और अरूपी अजीव / रूपी अजीवों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / अरूपी अजीव पांच प्रकार के कहे गए हैं-यथा (1) धर्मास्तिकाय का देश, (2) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, (3) अधर्मास्तिकाय का देश, (4) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश और (5) अद्धा-समय / 18. तिरियलोगखेतलोगस्स णं भंते ! एगम्मि अागासपदेसे कि जीवा ? एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव / [18 प्र.] भगवन् ! क्या तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक के एक प्राकाशप्रदेश में जीव हैं; इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार अधोलोक-क्षेत्रलोक के विषय में कहा है ? उसी प्रकार तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक के विषय में समझ लेना चाहिए / 19. एवं उडलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउचिहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org