________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [183 प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश-प्रश्न 1-2 में प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्ति नामक छठे पद का अतिदेश किया गया है। वहाँ के पाठ का भावार्थ इस प्रकार है--(प्र.) 'भगवन् ! वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? (उ.) गौतम ! वे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं।'' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीकायिक संबंधी उत्पत्ति-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 2. पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [2 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति बाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है / 3. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति / सेवदृसंघयणो, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं / मसूराचंदासंठिया। चत्तारि लेस्सायो / नो सम्मट्टिी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो अन्नाणा नियम / नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णायो। चत्तारि कसाया। एगे फासिदिए पन्नते। तिणि समुग्धाया। वेपणा दुविहा / नो इस्थिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुसगवेयगा। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। अझवसाणा पसत्था वि, अपसत्था वि / अणुबंधो जहा ठिती। [3 प्र.] भगवन् ! बे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! वे प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं। वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। उनका संस्थान (आकार) मसूर की दाल जैसा होता है / उनमें चार लेश्याएँ होती हैं / सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि नहीं होते, मिथ्यादष्टि ही होते हैं / वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी ही होते हैं। उनमें दो अज्ञान (मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान) नियम से होते हैं / वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी ही होते हैं। उनमें साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं। उनमें चारों संज्ञाएँ, चारों कषाय और एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय होती हैं। उनमें प्रथम के तीन समुद्घात होते हैं, साता और असातादोनों वेदना होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, नपुंसकवेदी ही होते हैं। उनकी स्थिति --- - ------.'-" - - - 1. देखो-पण्णवणासुत्तं भा.१, छठा व्युत्क्रान्तिपद सू. 650, पृ. 174 (महा. वि. प्रकाशन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org