________________ सिद्धिक के विषय में भवसिद्धित्वादि दृष्टि से प्रथम-अप्रथम प्ररूपणा 652, जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में संज्ञी, असंझी, मोसंजो-नोअसंज्ञी भाव से अपेक्षा की प्रथमत्व-अप्रथम व निरूपण 653, सलेश्यी, कृष्णादिलेश्यो एवं अलेश्यी जीव के विषय में सलेश्यादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 654, सम्पप्टि, मिध्याप्टि एवं मिश्रदृष्टि जीवा के विषय में एक-बहवचन से सम्यग्दृष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रथमत्व-प्रथमत्व निरूपण 55. जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व से संयतभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-प्रथमत्व निरूपण 656, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व की दृष्टि से यथायोग्य कषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 657, जीव, चौवीम दण्डक और मिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य ज्ञानो-अज्ञानोभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 658, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को लेकर यथायोग्य सयोगीअयोगीभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वकथन 659, जोव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से साकारोपयोग-अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्व कथन 660, जीव, चौबीम दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से सवेद-ग्रवेद भाव की अपक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 660. जीव चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य सशरीर-शरीरभाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-प्रथमत्वनिपण 661, जीव चौबीम दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य पर्याप्तभाव को अपेक्षा में प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 661, प्रथमत्व-अप्रथमत्व लक्षण निरूपण 662, जीय, पौवीस दण्डक और सिद्धों में पूर्वोक्त चौदह द्वारों के माध्यम से जीवभावादि की अपेक्षा से, एकवचन बहवचन मे यथयोग्य चरमस्व-गाच रमत्वनिरूपण 66 द्वितीय उ शक : विशाख विशाखानगरी में भगवान का समवसरण 669, शकेन्द्र का भगवान के सानिध्य में प्रागमन और नाट्य प्रदर्शित करके पुन: प्रतिगमन 669, गौतम द्वारा शन्द्र के पूर्वभव सम्बन्धी प्रश्न. भगवान द्वारा कार्तिक श्रेष्ठी के रूप में परिचयात्मक उत्तर 670, मुनिसुव्रत स्वामी से धर्मश्रवण और प्रवज्याग्रहण की इच्छा 671, एक हजार पाठ व्यापारियों सहित (कार्तिक श्रेष्ठी) का) दीक्षाग्रहण तथा संयमसाधन 678, कातिक मतगार द्वारा अध्ययन, तप, संलेखनापूर्वक ममाधिमरण एवं सौधर्मेन्द्र के रूप में उत्पत्ति 676 तृतीय उद्देशक : माकन्दिक माकन्दीपुत्र द्वारा पूछे गये कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिकों को मनुष्यभवानन्तर सिद्धगति सम्बन्धी प्रश्न के भगवान द्वारा उत्तर, माकन्दीपुत्र द्वारा तथ्यप्रकाशन पर संदिग्ध श्रमण निग्रन्थों का भगवान द्वारा समाधान, उनके द्वारा क्षमापना 678, चरम निर्जरा-पूदगलों सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 681, बन्ध के मुख्य दो भेदों के भेद-प्रभेदों का तथा चौवीस दण्डको सर्व जानावरणीयादि प्रष्टविध कर्म की अपेक्षा भावबन्ध के प्रकार का निरूपण 685, जीव एवं चौवीस दण्डकों द्वारा किए गए, किए जा रहे तथा किए जाने वाले पापक्रमों के नानारत का रष्टान्तपूर्वक निरूपण 687, चौवीस दण्डको डाग आहार रूप में गहीत पदगलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाणनिरूपण 689 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org