________________ छठा शतक : उद्देशक-९] [ 95 . विवेचन–बाह्य पुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव को एक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के पुद्गलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन सामर्थ्य प्रस्तुत 11 सूत्रों में महद्धिक देव के द्वारा बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्णादि के पुद्गलों को एक या अनेक अन्य वर्णादि के रूप में विकुक्ति अथवा परिमित करने के सामर्थ्य के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-महद्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके उत्तरवैक्रियरूप बना सकता (विकुर्वणा करता) है और फिर दूसरे स्थान में जाता है, किन्तु इगत अर्थात्-प्रश्नकार के समीपस्थ क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को तथा अन्यत्रगत-प्रज्ञापक के क्षेत्र और देव के स्थान से भिन्न क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं कर सकता। विभिन्न वर्णादि के 25 पालापकसूत्र-मूलपाठ में उक्त अतिदेशानुसार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आलापकसूत्र इस प्रकार बनते हैं... (1) पांच वर्षों के 10 द्विकसंयोगी घालायकसूत्र-(१) काले को नीलरूप में, (2) काले को लोहितरूप में, (3) काले को हारिद्ररूप में, (4) काले को शुक्लरूप में, (5) नीले को लोहितरूप में, (6) नील को हारिद्ररूप में, (7) नीले को शुक्लरूप में, (8) लोहित को हारिद्ररूप में, (6) लोहित को शुक्लरूप में, तथा (11) हारिद्र को शुक्लरूप में परिणमा सकता है। (2) दो गंध का एक पालापकसूत्र-(१) सुगन्ध को दुर्गन्धरूप में, अथवा दुर्गन्ध को सुगन्धरूप में। (3) पांच रस के दस पालापकसूत्र---(१) तिक्त को कटुरूप में, (2) तिक्त को कषायरूप में, (3) तिक्त को अम्लरूप में, (5) तिक्त को मधुररूप में, (5) कटु को कषायरूप में, (6) कटु को अम्लरूप में, (7) कटु को मधुर रूप में, (8) कषाय को अम्लरूप में, (9) कषाय को मधुररूप में, और (10) अम्ल को मधुररूप में परिणमा सकता है। 4) पाठ स्पर्श के चार पालापकसत्र-(१) गुरु को लघुरूप में अथवा लघ को गहरूप में, (2) शीत को उष्णरूप में या उष्ण को शीतरूप में, (3) स्निग्ध को रूक्षरूप में या रूक्ष को स्निग्धरूप में, और (4) कर्कश को कोमलरूप में या कोमल को कर्कशरूप में परिणमा सकता है / अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यायुक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यावाले देवादि को जाननेदेखने की प्ररूपरणा 13. [1] अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देवि अन्नयर जाणति पासति ? णो इण? समट्ठ / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या अविशुद्ध लेश्यावाला देव असमवहत-(उपयोगरहित) प्रात्मा 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 283 2. भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 339 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org