________________ 94 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 उ.] गौतम ! (बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना) यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके देव वैसा करने में समर्थ है। 7. से गं भाते ! कि इहगए पोग्गले० तं चेव, नवरं परिणामेति ति भाणियन्वं / [7 प्र.] भगवन् ! वह देव इहगत, तत्रगत या अन्यत्रगत पुद्गलों में से किन) को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है ? [7 उ.] गौतम ! वह इहगत और अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा नहीं कर सकता, किन्तु तत्र (देवलोक-) गत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा परिणत करने में समर्थ है / [विशेष यह है कि यहाँ विकुक्ति करने में' के बदले 'परिणत करने में कहना चाहिए / ] 8. [1] एवं कालगपोग्गलं. लोहियपोग्गलत्ताए। [2] एवं कालएण जाव' सुक्किलं / [8-1.] इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल पुद्गल के रूप में (परिणत करने में समर्थ है।) [8-2.] इसी प्रकार काले पुद्गल के साथ यावत् शुक्ल पुद्गल तक समझना। 6. एवं गोलएणं जाव सुक्किलं / [9] इसी प्रकार नीले पुद्गल के साथ यावत् शुक्ल पुद्गल तक जानना / 10. एवं लोहिएणं जाव सुविकलं / [10] इसी प्रकार लाल पुद्गल को यावत् शुक्ल तक (परिणत करने में समर्थ है।) 11. एवं हालिद्दएणं जाव सुक्किलं / [11] इसी प्रकार पीले पुद्गल को यावत् शुक्ल तक (परिणत करने में समर्थ है; यों कना चाहिए।) 12. एवं एताए परिवाडीए गंध-रस-फास० कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गलत्ताए / एवं दो दो गल्य-लहुय 2, सीध-उसिण 2, णिद्ध-लुक्ख 2, वण्णाइ सव्वत्थ परिणामेइ / पालावगा य दो दोपोग्गले अपरियादिइत्ता, परियादिइत्ता। [12] इसी प्रकार इस क्रम (परिपाटी) के अनुसार गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी समझना चाहिए / यथा-(यावत्) कर्कश स्पर्शवाले पुद्गल को मृदु (कोमल) स्पर्शवाले (पुद्गल में परिणत करने में समर्थ है।) इसी प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों को अर्थात् गुरु और लयु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, वर्ण आदि को वह सर्वत्र परिणमाता है / 'परिणमाता है' इस क्रिया के साथ यहाँ इस प्रकार दो-दो पालापक कहने चाहिए; यथा--(१) पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है, (2) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना नहीं परिणमाता / 1. 'जाव' पद से यहां सर्वत्र मागे-मागे के सभी वर्ण जान लेने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org