________________ 352] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्म के उदय से कौन-कौन से परीषह उत्पन्न होते हैं ? तथा (2) सप्तविधबन्धक, षड्विधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकविधबन्धक और प्रबन्धक आदि में कितने-कितने परीषहों की सम्भावना है। परोषह : स्वरूप और प्रकार-आपत्ति आने पर भी संयममार्ग से भ्रष्ट न होने, तथा उसमें स्थिर रहने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक, मानसिक कष्ट साधु, साध्वियों को सहन करने चाहिए, वे 'परीषह' कहलाते हैं। ऐसे परीषह 22 हैं / यथा-(१) क्षुधापरीषह - भूख का कष्ट सहना, संयममर्यादानुसार एषणीय, कल्पनीय निर्दोष आहार न मिलने पर जो क्षुधा का कष्ट सहना होता है, उसे क्षुधापरीषह कहते हैं। (2) पिपासापरीषह-प्यास का परीषह, (3) शीतपरीषह--ठंड का परीषह, (4) उष्णपरीषह-गर्मी का परीषह (5) दंश-मशकपरीषह-डांस, मच्छर, खटमल, ज', चींटी आदि का परीषह, (6) अचेलपरीषह-वस्त्राभाव, वस्त्र की अल्पता या जीर्णशीर्ण, मलिन आदि अपर्याप्त वस्त्रों के सद्भाव में होने वाला परीषह, (7) अरतिपरीषह-संयममार्ग में कठिनाइयाँ, असुविधाएँ, एवं कष्ट आने पर अरति-अरुचि या उदासी या उद्विग्नता से होने वाला कष्ट, (8) स्त्रीपरीषह --स्त्रियों से होने वाला कष्ट, साध्वियों के लिए पुरुषों से होने वाला कष्ट, (यह अनुकूल परीषह है।) (8) चर्यापरीषह-ग्राम, नगर आदि के विहार से या पैदल चलने से होने वाला कष्ट, (10) निषद्या या निशीथिका परोषह-स्वाध्याय आदि करने को भूमि में तथा सूने घर आदि में ठहरने से होने वाले उपद्रव का कष्ट, (11) शय्यापरीषह-रहने के (आवास-) स्थान की प्रतिकूलता से होने वाला कष्ट, (12) प्राक्रोशपरीषह-कठोर, धमकीभरे वचन, या डाट-फटकार से होने वाला, (13) वधपरोषह-मारने-पीटने आदि से होने वाला कष्ट, (14) याचनापरीषह-भिक्षा माँग कर लाने में होने वाला मानसिक कष्ट, (15) अलाभपरीषह-भिक्षा आदि न मिलने पर होने वाला कष्ट, (16) रोगपरीषह-रोग के कारण होने वाला कष्ट, (17) तृणस्पर्शपरीषह–चास के बिछौने पर सोने से शरीर में चुभने से या मार्ग में चलते समय तृणादि पैर में चुभने से होने वाला कष्ट, (18) जल्लपरीषह-कपड़ों या तन पर मैल, पसीना पादि जम जाने से होने वाली ग्लानि, (16) सत्कार-पुरस्कारपरीषह-जनता द्वारा सम्मानसत्कार, प्रतिष्ठा, यश, प्रसिद्धि प्रादि न मिलने से होने वाला मानसिक खेद अथवा सत्कार-सम्म मिलने पर गर्व अनुभव करता, (20) प्रज्ञापरीषह-प्रखर अथवा विशिष्टबुद्धि का गर्व करना, (21) ज्ञान या अज्ञान परीषह-विशिष्ट ज्ञान होने पर उसका अहंकार करना, ज्ञान (बुद्धि) की मन्दता होने से मन में दैन्यभाव आना, और (22) प्रदर्शन या दर्शन परीषह-दूसरे मत वालों की ऋद्धि-वृद्धि एवं चमत्कार-पाडम्बर आदि देख कर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त से विचलित होना या सर्वज्ञोक्त तत्त्वों के प्रति शंकाग्रस्त होना। चार कर्मों में बावीस परीषहों का समावेश-कर्म प्रकृतियां मूलतः पाठ हैं। उनमें से 4 कर्मो-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय में 22 परीषहों का समावेश होता है / इसका तात्पर्य यह है कि इन चार कर्मों के उदय से पूर्वोक्त 22 परीषह उत्पन्न होते हैं / प्रज्ञापरीषह और ज्ञान या अज्ञान परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होते हैं / वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा श्रादि 11 परीषह होते हैं। इन परीषहों के कारण पीड़ा उत्पन्न होना-वेदनीय कर्म का उदय है / मोहनीय कर्म के उदय से 8 परीषह होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से प्रदर्शन या दर्शन परीषह और चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अति, अचेल आदि 7 परीषह होते हैं और अन्त रायकर्म के उदय से अलाभ परीषह होता है। सप्तविध प्रादि बन्धक के साथ परीषहों का साहचर्य-प्रायुकर्म को छोड़कर शेष 7 अथवा प्रायुलंधकाल में 8 कर्मों को बांधने वाले जीव के सभी 22 परीषह हो सकते हैं; किन्तु ये वेदते हैं--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org