________________ 622] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एगमेगा०, सेसं जहा चमरलोगपालाणं (सु. 8-13) / नवरं सयंपभे विमाणे सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव / एवं जाव' वेसमणस्स, नवरं विमाणाई जहा ततियसए (स. 3 उ. 7 [33 प्र.! भावन् ! देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल सोम महाराजा की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? |33 उ. पार्यो ! (लोकपाल सोम महाराजा की) चार अग्रमहिषियां हैं। वे इस प्रकार(१) रोहिणी, (2) मदना, (3) चित्रा और (4) सोमा / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन चमरेन्द्र के लोकपालों के समान (सू. 8-13 के अनुसार) जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि स्वयम्प्रभ नामक विमान में सुधर्मासभा में, सोम नामक सिंहासन पर बैठ कर यावत् मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् वैश्रमण लोकपाल तक का कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि इनके विमान आदि का वर्णन (भगवती.) तृतीयशतक के सातवें उद्देशक (सू. 3) में कहे अनुसार जानना चाहिए / विवेचन शक्नेन्द्र तथा उसके लोकपालों की देवियों आदि का वर्णन प्रस्तुत तीन सूत्रों में शक्रेन्द्र की अग्नमहिषियों तथा उनके अधीनस्थ कुलदेवियों के परिवार का एवं सुधर्मासभा में उनके साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का प्रतिपादन किया गया है / ईशानेन्द्र तथा उसके लोकपालों का देवी-परिवार 34. ईसाणस्स णं भंते ! 0 पुच्छा। अज्जो! अट्ठ अग्गहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहाकण्हा कण्हराई रामा रामरक्खिया बसू वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुधरा / तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा सक्कस्स। [34 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [34 उ.] पार्यो ! ईशानेन्द्र को आठ अग्रम हिषियाँ हैं / यथा--(१) कृष्णा, (2) कृष्णराजि, (3) रामा, (4) रामरक्षिता, (5) वसु, (6) वसुगुप्ता, (7) वसुमित्रा, (8) वसुन्धरा / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी की देवियों के परिवार आदि का शेष समस्त वर्णन शकेन्द्र के समान जानना चाहिए। 35. ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स सोमस्स महारण्णो कति० पुच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमाहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा.-पुढवी राती रयणी विज्जू / तत्थ पं०, सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं / एवं जाव वरुणस्स, नवरं विमाणा जहा चउत्थसए (स. 4 उ. 1 सु. 3) / सेसं तं चेव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। // दसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो / / 1. 'जाव' पद से यहाँ 'यम, वरुण' समझना चाहिए 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 503 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org