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________________ तइओ उद्देसओ : गंठिय तृतीय उद्देशक : ग्रन्थिका एक जीव द्वारा एक समय में इहभाविक एवं परमविक आयुष्य-वेदन विषयक अन्यतीथिक मत निराकरणपूर्वक भगवान् का समाधान 1. अण्णउस्थिया भते ! एवमाइक्खंति मा०प० एवं परूवेति-से जहानामए जालगंठिया सिया प्राणपुब्बिढिया प्रणंतरगढिया परंपरगाढता अन्नमन्नगढिता अन्नमनगुरुयत्ताए अनमनभारियत्ताए अनमनगुरुयसंभारियत्ताए अन्नमनघडताए चिट्ठति, एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु प्राजातिसहस्सेसु बहूई पाउयसहस्साई प्राणुपुधिढियाइं जाव चिट्ठति / एगे वि य णं जोवे एगेणं समएणं दो पाउयाई पडिसंवेदयति, तं जहा-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च; जं समयं इहवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभक्यिाउयं पडिसंवेदेइ, जाव से कहमेयं मते ! एवं ? / गोतमा ! जणं ते अन्नउस्थिया तं चेव जाव परभवियाउयं च; जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–जहानामए जालगंठिया सिया जाव अन्नमनघडताए चिति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहि प्राजातिसहस्सेहि बहूई माउयसहस्साई प्राणुपुश्विगढियाइं जाव चिट्ठति / एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहाइहभावियाउयं वा परभविघाउयं वा, जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ नो त समयं पर० पडिसंवेदेति, जं समयं प० नो तं समयं इहवियाउयं 50, इहवियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो परभवियाउध पडिसंवेदेइ, परवियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो इहवियाउयं पडिसंवेदेति / एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एगं पाउयं प०, तं जहा-इहमवियाउयं वा, पर भवियाउयं वा / [1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई (एक) जालग्रन्थि (गांठे लगी हुई, जाल) हो, जिसमें क्रम से गांठे दो हुई हो, एक के बाद दूसरी अन्तररहित (अनन्तर) गांठें लगाई हुई हों, परम्परा से गूथी हुई हो, परस्पर गूथी हुई हो, ऐसी वह जालग्रन्थि परस्पर विस्तार रूप से, परस्पर भाररूप से तथा परस्पर विस्तार और भार रूप से, परस्पर संघटित रूप से यावत् रहती है, (अर्थात्--जाल तो एक है, लेकिन उसमें जैसे अनेक गांठे संलग्न रहती हैं) वैसे ही बहुत-से जीवों के साथ क्रमश: हजारों-लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत-से आयुष्य परस्पर क्रमशः गूथे हुए हैं, यावत् परस्पर संलग्न रहते हैं। ऐसी स्थिति में उनमें से एक जीव भी एक समय में दो आयुष्यों को वेदता (भोगता-अनुभव करता है / यथा एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और वही जीव, परभव का भी आयुष्य वेदता है / जिस समय इस भव के आयुष्य का वेदन करता है, उसी समय वह जीव परभव के आयुष्य का भी वेदन करता है; यावत् हे भगवन् ! यह (बात) किस तरह है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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