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________________ 128] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [1 उ.] गौतम ! उन अन्यतीथिकों ने जो यह कहा है कि "यावत् एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और पर-भव का-दोनों का आयुष्य (एक साथ) वेदता है, उनका यह सब (पूर्वोक्त) कथन मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि-जैसे कोई एक जाल ग्रन्थि हो और वह यावत् ... परस्पर संघटित [सामूहिक रूप से संलग्न रहती है, इसी प्रकार क्रमपूर्वक बहुत-से सहस्रों जन्मों से सम्बन्धित, बहुत-से हजारों श्रायुष्य, एक-एक जीव के साथ शृखला (सांकल) की कड़ी के समान परस्पर क्रमश: ग्रथित (गूथे हुए) यावत् रहते हैं। (ऐसा होने से) एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है, जैसे कि या तो वह इस भव का ही आयुष्य वेदता है, अथवा पर भव का ही आयुष्य वेदता है। परन्तु जिस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, और जिस समय परभव के प्रायुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता / इस भव के आयुष्य का बेदन करने से परभव का प्रायुष्य नहीं वेदा जाता और के प्रायुष्य का वेदन करने से इस भव का आयुष्य नहीं वेदा जाता / इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही प्रायष्य का वेदन करता है; वह इस प्रकार-या तो इस भव के प्रायष्य का, अथवा परभव के आयुष्य का। विवेचन-एक जीव द्वारा एक समय में इहभविक एवं परभविक प्रायष्य बेदन विषयक प्रत्यतीथिकमनिराकरण पूर्वक भगवान का समाधान-प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों के एक जीव द्वारा एक समय में उभयभविक आयुष्य-वेदन के मत का खण्डन करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित एकभाविक आयुष्य-बेदन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है / जाल को गांठों के समान अनेक जोवों के अनेक प्रायुष्यों की गांठ--यहां अन्यतीथिकों के द्वारा निरूपित जाल (मछलियां पकड़ने के जाल) की गांठों का उदाहरण देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार जाल एक के बाद एक, क्रमपूर्वक, अन्तर-रहित गांठे देकर बनाया जाता है, और वह जाल उन सब गांठों से गुम्फित-संलग्न रहता है। इसी तरह जीवों ने अनेक भव किये हैं, उन अनेक भवों के अनेक आयुष्य उस जाल की गांठों के समान परस्पर संलग्न हैं; इसलिए एक जीव दो भव का आयुष्य (एक साथ) वेदता है / ' भगवान् ने इस मत को मिथ्या बताया है / उनका प्राशय यह है कि अनेक / जीवों के एक साथ अनेक प्रायुष्यों के या एक जीव के एक साथ दो अायुष्यों के वेदन को सिद्ध करने के लिए अन्यतीथिकों ने जो जालग्रन्थि का दृष्टान्त दिया है, वह अयुक्त है; क्योंकि प्रश्न होता है, वे सब आयुष्य जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर भलीभांति सम्बद्ध हैं या असम्बद्ध ? यदि वे सब आयुष्य जीव के प्रदेशों के साथ भलीभांति सम्बद्ध हैं तो जालग्रन्थि के समान उनको बताना मिथ्या है, क्योंकि वे सब प्रायुष्य तो भिन्न-भिन्न जीवों के साथ सम्बद्ध हैं, इस कारण वे सब पृथक-पृथक होने से उनको जालग्रन्थि की तरह परस्पर संलग्न बताना ठीक नहीं / यदि उनको जालग्नन्थि की तरह बताया जाएगा तो सभी जीवों का सम्बन्ध उन सब आयुष्यों के साथ मानना पड़ेगा, क्योंकि आयष्यों का सीधा सम्बन्ध जीवों के साथ है। इसीलिए जीवों के साथ जालग्रन्थि की तरह परस्पर सम्बन्ध माना जाने पर सभी जीवों द्वारा एक साथ सभी प्रकार के प्रायव्य भोगने का प्रसंग आएगा, जो कि प्रत्यक्षबाधित है, तथा जैसे एक जाल के साथ अनेक ग्रन्थियाँ होती हैं, एक जीव के साथ भी अनेक भवों के आयुष्य का सम्बन्ध होने से एक साथ अनेक गतियों के वेदन का प्रसंग पाएगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है / अत: जालग्रन्थि की तरह एक जीव के साथ दो या अनेक भवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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