SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 671
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 70 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! लोयंत गच्छेज्जा, लोयंतं पाउणिज्जा। [5-1 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है, और समवहत हो कर असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक प्रावासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक प्रावास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! वह जीव मंदर (मेरु) पर्वत से पूर्व में कितनी दूर जाता है ? और कितनी दूरी को प्राप्त करता है ? [5-1 उ.] हे गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है और लोकान्त को प्राप्त करता है / [2] से गं भंते ! तत्थगए चेव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज वा, सरोरं वा बंधेज्जा ? गोयमा ! प्रत्थेगइए तत्थगते चेष आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्ज, प्रत्थेगइए ततो पडिनियत्तति, 2 ता इहमागच्छ६, २त्ता दोच्च पि मारणतियसमग्घाएणं समोहणति, २त्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागमेत्तं वा संखेजतिभागमेत्तं वा, वालग्गं वा, वालग्गपुहुत्तं वा एवं लिक्खं जूयं जावं अंगुलं जाव' जोयणकोडि वा, जोयणकोडाकोडि वा, संखेज्जेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्सेसु, लोगते वा एगपदेसियं सेटिं मोत्तूण असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जेत्ता तो पच्छा प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज्जा। [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीव, वहाँ जा कर ही प्राहार करता है, प्राहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [5-2 उ.] गौतम ! कोई जीव, वहाँ जा कर ही पाहार करता है। उस आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है; और कोई जीव वहां जा कर वापस लौटता है, वापस लौट कर यहाँ पाता है; यहाँ आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है / समवहत हो कर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्येयभाग मात्र, या संख्येयभागमात्र, या बालान, अथवा बालाग्र-पृथक्त्व (दो से नौ तक बालान), इसी तरह लिक्षा, यूका, यव, अंगुल यावत् करोड़ योजन, कोटा-कोटि योजन, संख्येय हजार योजन और असंख्येय हजार योजन में, अथवा एक प्रदेश श्रेणी को छोड़ कर लोकान्त में पृथ्वीकाय के असंख्य लाख आवासों में से किसी आवास में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होता है और उसके पश्चात् प्राहार करता है, उस आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है। [3] जहा पुरस्थिमेणं मंद रस्स पव्वयस्स पालावगो मणिग्रो एवं दाहिणणं, पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ड, प्रहे। [5-3] जिस प्रकार मेरुपर्वत की पूर्वदिशा के विषय में कथन किया (पालापक कहा) गया है, उसी प्रकार से दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 1. यहाँ 'जाव' पद विहत्यि वा रयणि वा कुच्छि वा धण' वा कोसौं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्स या जोयणसयसहस्स' वा' पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy