________________ छठा शतक : उद्देशक-६] [71 6. जहा पुढधिकाइया तहा एगिदियाणं सध्वेसि एक्केकस्स छ पालावगा भाणियब्वा / [6] जिस प्रकार पृथ्वी कायिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार से सभी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में कहना चाहिए / एक-एक के छह-छह आलापक कहने चाहिए। 7. जीवे गं भंते ! मारणंतियसमुग्घातेणं समोहते, 2 ता जे भविए असंखेज्जेसु बेइंगियावाससयसहस्सेसु मन्नतरंसि बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! तत्थगते चेव जहा नेरइया / एवं जाव अणसरोववातिया / [7 प्र.] भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात से गमवहत हुया है और समवहत होकर द्वीन्द्रिय जीवों के असंख्येय लाख आवासों में से किसी एक प्रावास में द्वीन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने वाला है ; भगवन् ! क्या वह जीव वहाँ जा कर ही आहार करता है, उस आहार को परिणमाता है, और शरीर बांधता है ? [7 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों के लिए कहा गया, उसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तरौपपातिक देवों तक सब जीवों के लिए कथन करना चाहिए / 8. जीवे गं भंते ! मारणंतियसमुग्धातेणं समोहते, 2 जे भविए एवं पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणेसु अन्नयरंसि अनुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववज्जित्तए, से गं भंते ! तत्थगते चेव जाव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / / / छ8 सए छट्टो उद्देसो समतो।। 8 प्र.] हे भगवन् ! जो जीव' मार गान्तिक समुद्घात से समवहत हुमा है और समवहत हो कर महान् से महान् महाविमानरूप पंच अनुत्तरविमानों में से किसी एक अनुत्तर विमान में अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न होने वाला है, क्या वह जीव वहाँ जा कर ही पाहार करता है, आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [उ.] गौतम ! पहले कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए, ""यावत् पाहार करता है, उसे परिणमाता है और शरीर बांधता है। हे भगवन ! यह इसो प्रकार है, भगवन् यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–चौवीस दण्डकों में मारणान्तिकसमुद्घातसमवहत जीव को माहारादि-प्ररूपणाप्रस्तुत छह सूत्रों में यह शंका प्रस्तुत की गई है कि नार कदण्डक से लेकर अतुत्तरोपपातिक देवों तक मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर जिस गति-योनि में जाना हो, तो वहाँ जाकर आहार करता है, परिणमाता है, शरीर बांधता है, या और तरह से ? इसका समाधान किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org