________________ छठा शतक : उद्देशक-६ ] चौवीस दण्डकों के समुद्घात-समवहत जीव को आहारादि प्ररूपरणा 3. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहते, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नतरंसि निरयावासंसि नेर इयत्ताए उववज्जित्तए से णं भते ! तत्थगते चेव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं बा बंधेज्जा? गोयमा ! प्रत्थेगइए तत्थगते चेव प्राहारेज्ज बा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज, प्रत्थेगइए ततो पडिनियति, इहमागच्छति, ग्रामच्छित्ता दोच्चं वि मारणंतियसमुग्धाएण समोहणति, समोहणित्ता इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्ता ततो पच्छा प्राहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा / [3-1 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुना है और समवहत हो कर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से किसी एक नारकावास में नरायक रूप म उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! क्या वह वहाँ जा कर आहार करता है? आहार को परिणमाता है ? और शरीर बांधता है ? [3-1 उ.] गौतम ! कोई जीव वहाँ जा कर ही प्राहार करता है, श्राहार को परिणमाता है या शरीर बांधता है; और कोई जीव वहाँ जा कर वापस लौटता है, वापस लौट कर यहाँ प्राता है / यहाँ आ कर वह फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समवहत होता है / समवहत हो कर इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से किसी एक नारकावास में नैरयिकरूप से उत्पन्न होता है / इसके पश्चात् पाहार ग्रहण करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है / [2] एवं जाव आहेसत्तमा पुढवी। [3-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी तक कहना चाहिए। 4. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, 2 जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अनतरंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उबज्जित्तए / जहा नेरइया तहा भाणियवा जाव' थणियकुमारा। [4 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुया है और समवहत हो कर असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से किसी एक आवास में उत्पन्न होने के योग्य है; क्या वह जीव वहाँ जा कर ही आहार करता है ? उस पाहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [4 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में, यावत स्तनितकूमारों तक कहना चाहिए। 5. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, 2 जे भविए असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमेणं केवतियं गच्छेज्जा, केवतियं पाउरोज्जा ? 1. यहाँ 'जाव' पद से असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त सभी भवनवासियों के नाम कहने चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org