________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9 / [207 अतिक्रान्त (मात) कर गए हैं, वे देवातिदेव हैं, अथवा पारमाथिक देवत्व होने से जो देवों से अधिक श्रेष्ठ हैं, वे देवाधिदेव कहलाते हैं / (5) भावदेव-देवगति आदि कर्मों के उदय से जो देवों में उत्पन्न हैं, देवपर्याय से देव हैं, और देवत्व का बेदन करते हैं. वे भावदेव हैं / कठिनशब्दार्थ- भविए--भव्य---योग्य / चाउरंतचक्कवट्टी-चतुरन्त के स्वामी, चक्र से वर्तनशील / चतुरन्त शब्द के ग्रहण करने से वासुदेव प्रादि सामान्य नरपतियों का निराकरण हो गया। सागरवरमेखलाहिवइणो - सागर ही जिसकी श्रेष्ठ मेखला (करधनी) है, ऐसी षटखण्डात्मक पृथ्वी के अधिपति / नवनिहिपतिणो-नौ निधियों के स्वामी। पंचविध देवों की उत्पत्ति का सकारण निरूपण 7. भवियदव्वदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जंति ? कि नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खमगुस्स-देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइरहितो उववज्जंति, तिरि-मणु-देवेहितो वि उववज्जति / भेदो जहा' वक्कंतीए / सन्वेसु उववातेयत्वा जाव अणुत्तरोववातिय त्ति / नवरं असंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमगअंतरदीवग-सन्म सिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहितो वि उववज्जंति, गो सवसिद्धदेवेहितो उववज्जति / [7 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव किन में (किन जीवों या किन गतियों में) से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में से (पाकर) उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देवों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं / [7 उ. गौतम ! वे नरयिकों में से (माकर) उत्पन्न होते है, तथा तिर्यञ्च. मनुष्य या देवों में से भी उत्पन्न होते है / (यहाँ प्रज्ञापना सूत्र के छठे) व्युत्क्रान्ति पद (में कहे) अनुसार भेद (विशेषता) कहना चाहिए / इन सभी की उत्पत्ति के विषय में यावत् अनुत्तरोपपातिक तक कहना चाहिए / विशेष बात यह है कि असंख्यातवर्ष की आयु वाले अकर्म भूमिक तथा अन्तरद्वीपक एवं सर्वार्थसिद्ध के जीवों को छोड़कर यावत् अपराजित देवों (भवनपति से लेकर अपराजित नामक चतुर्थ अनुतरविमानवासी देवों) तक से पाकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु सर्वार्थसिद्ध के देवों से प्राकर उत्पन्न नहीं होते / 8. [1] नरदेवा ण भते ! कोहितो उववज्जति ? कि नेरतिय० पुच्छा। गोयमा ! नेरतिरहितो उववज्जति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहितो वि उववज्जति / 18-1 प्र.] भगवन् ! नरदेव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिक, तियंञ्च, मनुष्य या देवों में से पाकर उत्पन्न होते हैं ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 585 2. (क) वही, पत्र 5-5 (ख) भगवती, (हिंदीविवेचन) भा. 4 पृ. 2087 1. देखिये- पण्णवणासुत भा. 1 छठा व्युत्क्रान्तिपद, सू. 639-65, (मूलपाठटिप्पणयुक्त) पृ. 165-75 में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org