SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1881
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 616] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र अवेवस्स अमोहस्स अलेसम्स असरोरस्स ताओ विष्पमुक्कस्स गो एवं पन्नायति, तं जहाकालत्ते वा जाव लुक्खत्ते बा, से तेण?णं जाय चिद्वित्तए / सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्तिः / // सत्तरसमे सए : बीओ उद्देसमो समत्तो // 17-2 / / [16 प्र.] भगवन् ! क्या वहो जोव पहले अरूपो होकर, फिर रूपी आकार को विकुर्वणा करके रहने में समर्थ है ? [19 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भंते ! क्या कारण है कि वह ""यावत् वैसा करके रहने में समर्थ नहीं है ? उ.] गौतम ! मैं यह जानता हूँ, यावत् कि तया-प्रकार के प्ररूपी, अकर्मी, परागी, अवेदी, अमोहो, अलेश्यी, अशरीरी और उस शरीर से विप्रमुक्त जीव के विषय में ऐसा ज्ञात नहीं होता कि जीव में कालापन यावत् रूक्षपन है। इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से विकुर्वणा करने में समर्थ नहीं है। __हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 18-16) में दो प्रकार के सिद्धान्त को सर्वज्ञ प्रभु महावीर को माक्षी से प्रस्तुत किया गया है-- (1) कोई भी जीव (विशेषतः देव) पहले रूपी होकर फिर विक्रिया से अरूपित्व को प्राप्त करके नहीं रह सकता। (2) कोई भी जोब (विशेषत: देव) पहले अरूपी होकर बाद में विक्रिया से रूपी आकार बना कर नहीं रह सकता।' रूपी अरूपी क्यों नहीं हो सकता?-कोई महद्धिक देव भो पहले रूपो (मूर्त) होकर फिर अरूपी (अमूर्त) कदापि नहीं हो सकता। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने इसी प्रकार इस तत्त्व को अपने केवलज्ञानालोक में देखा है। शरीरयुक्त जोक में ही कर्मपुद्गलों के सम्बन्ध से रूपित्व ग्रादि का ज्ञान सामान्यजन को भी होता है / इसलिए रूपी, अरूपी नहीं हो सकता / अरूपी भी रूपी क्यों नहीं हो सकता ? - कोई भो जोव, भले ही वह महद्धिक देव हो, पहले अरूपी (वर्णादिरहित) होकर फिर रूपी (वर्णादियुक्त) नहीं हो सकता, क्योंकि अरूपी जीव कर्मरहित, कायारहित, जन्ममरणरहित, वर्णादिरहित मुक्त (सिद्ध) होता है, और ऐसे मुक्त जोव को फिर से कर्मबन्ध नहीं होता / कर्मबन्ध के अभाव में शरीर की उत्पत्ति न होने से वर्णादि का अभाव 1. जियाहपण्णतिसुत्तं 'भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 780 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy