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________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] 615] आएगा। तथा अत्यन्त प्रभेद मानने पर परलोक का अभाव हो जाएगा। इसलिए जीव और आत्मा में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है / ' रूपी अरूपी नहीं हो सकता, न प्ररूपी रूपी हो सकता है 18. [1] देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्ले पुधामेव रूबी भवित्ता पभू अरूवि विउव्वित्ताणं चिट्ठिलए? जो इण? सम?। [18-1 प्र.] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर (मूर्तरूप धारण करके) बाद में अरूपी (अमूर्तरूप) की विक्रिया करने में समर्थ है ? [18-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] से केण?णं भंते ! एवं वच्चद-देवे णं जाब नो पद अरूवि विउवित्ताणं चिद्वित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुजमामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामिमए एयं नायं, मए एवं दिटु, मए एयं बुद्ध, मए एवं अभिसमन्नागयं जं जं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मरस सरागरस सवेयगरस समोहस्स सलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराम्रो अविप्पमुक्करस एवं पण्णायति, तं जहा-कालते वा जाव सुविकलते वा, सुम्भिगंधते वा, दुनिभगंधत्ते वा, तित्तत्ते या जाव महुरत्ते वा, कवखडत्ते वा जाव लवखत्ते वा, से तेण?णं गोयमा ! जाय चिद्वित्तए / [18-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि देव (पहले रूपी होकर). यावत् अरूपीपन की विक्रिया करने में समर्थ नहीं है ? १६-२उ. गौतम ! मैं यह जानता हूँ. मैं यह देखता हैं. मैं यह निश्चित जानता है. मैं यह सर्वथा जानता हूँ; मैंने यह जाना है. मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि तथा प्रकार के सरूपी (रूप वाले), सकर्म (कर्म वाले) सराग, सवेद (वेद वाले), समोह (मोहयुक्त) सलेश्य (लेश्या वाले), सशरीर (शरीर वाले) और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा सम्प्रज्ञात होता है। यथा--उस शरीरयुक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व, कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व होता है / इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् विक्रिया करके रहने में समर्थ नहीं है / 19. सच्चेव णं भंते ! से जीये पुवामेव अरूवी वित्ता पभू कवि विउविताणं चिद्वित्तए ? जो तिण? समी। जाव चिट्टित्तए ? गेयमा! अहमेयं जाणामि, जाव जणं तहागयरस नीवस्स अविस्स अकम्मरस अरागस्स 1. भग, (हिन्दीविवेचन), भा. 5, पृ. 2612 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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