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________________ 614] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीवात्मा उस जीव से भिन्न है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है। उत्थान यावत् पराक्रम में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा उससे भिन्न है। नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा अन्य है। ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय कर्म में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा भिन्न है / इसी प्रकार कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या तक में, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-सम्यग-मिथ्यादृष्टि में, इसी प्रकार चक्षुदर्शन आदि चार दर्शनों में, प्राभिनिबोधिक प्रादि पांच ज्ञानों में, मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञानों में, पाहारसंज्ञादि चार संज्ञाओं में, एवं औदारिक शरीरादि पांच शरीरों में, तथा मनोयोग आदि तीन योगों में और साकारोपयोग में एवं निराकारोपयोग में वर्तमान प्राणी का अन्य है और जीवात्मा अन्य है। भगवन ! उनका यह मन्तव्य किस प्रकार सत्य हो सकता 17 उ.] गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् वे मिथ्या कहते हैं / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता है--प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में वर्तमान प्राणी जोव है और वही जीवात्मा है, यावत् अनाकारोपयोग में वर्तमान प्राणी जीव है और वही जीवात्मा है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों के मत के --प्राणातिपातादि में वर्तमान जीव और जीवात्मा पृथक-पृथक हैं, निराकरण-पूर्वक जैन सिद्धान्तसम्मत मत प्रस्तुत किया गया है। वृत्तिकार ने यहाँ तीन मत जीव और जीवात्मा को पृथक्ता के सम्बन्ध में प्रस्तुत किये हैं--- (1) सांख्यदर्शन का मत-प्रागातिपातादि में वर्तमान प्राणो से जीव अर्थात् प्राणों को धारण करने वाला 'शरीर' सांख्यदर्शन को भाषा में 'प्रकृति' भिन्न है / जीव यानी शरीर का सम्बन्धी-अधिष्ठाता होने से ग्रात्मा-जोवात्मा, सांख्यदर्शन की भाषा में 'पुरुष' भिन्न है। सांख्यमतानुसार प्रकृति कर्ता है, पुरुष अकर्ता तथा भोक्ता है / उसका कहना है कि प्राणातिपातादि में प्रवृत्त होने वाला शरीर प्रत्यक्ष दृश्यमान है, इसलिए शरीर (प्रकृति) ही कर्ता है, अात्मा (पुरुष) नहीं / (2) द्वितोय मत - द्वैतवादी दर्शन–नारकादि पर्याय धारण करके जो जोता है, वह जोव है, वही प्राणातिपातादि में प्रवृत्त होता है, किन्तु जीवात्मा नारकादि सब भेदों का अनुगामी जीवद्रव्य है। द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न भिन्न हैं, दोनों की भिन्नता का तथाविध प्रतिभास घट और पट को तरह होता है। इसलिए जीव और जीवात्मा दोनों भिन्न-भिन्न हैं। (3) तीसरा वेदान्त (औपनिषदिक) मत--जोव (अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य) भिन्न है और जोवात्मा (ब्रह्म) भिन्न है / जीव का ही स्वरूप जीवात्मा है / उनके मतानुसार जीव और ब्रह्म का औपाधिक भेद है। जीव हो प्राणातिपातादि विभिन्न क्रियाएँ करता है, इसलिए वही कर्ता है, किन्तु जीवात्मा (ब्रह्म) प्रकर्ता है। सभी अवस्थाओं में जीव और जोवात्मा का भेद बताने के लिए हो प्राणातिपातादि क्रियाओं का कथन है / ' जैनसिद्धान्त का मन्तव्य --जीव अर्थात् जीव विशिष्ट शरीर और जीवात्मा (जीव), ये कथंचित् एक हैं, इन दोनों में अत्यन्त भेद नहीं है / अत्यन्त भेद मानने पर देह से स्पृष्ट वस्तु का ज्ञान जोव को नहीं हो सकेगा तथा शरीर द्वारा किये हुए कर्मों का वेदन भी आत्मा को नहीं हो सकेगा। दूसरे के द्वारा किये हुए कर्मों का संवेदन दूसरे के द्वारा मानने पर अकृताभ्यागमदोष 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 724 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2612 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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