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________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] [613 विरति की है, उस जीव को 'एकान्तबाल' न कह कर, 'बाल-पण्डित' कहना चाहिए, क्योंकि वह देशविरत है। जो देशविरत हो, उसे 'एकान्तवाल' कहना यथार्थ नहीं हैं।' कठिन शब्दार्थ- एगपाणाए---एक प्राणी के / दंडे-वध / अनिक्खित्ते-अनिक्षिप्त छोड़ा नहीं है / माहंसु-कहा है। प्राणातिपात प्रादि में वर्तमान जीव और जीवात्मा को भिन्नता के निराकरणपूर्वक जैनसिद्धान्तसम्मत जीव और प्रात्मा की कथंचित् अभिन्नता का प्रतिपादन 17. अन्नउस्थिया णं भंते ! एवमाइपखंति जाव पवेति-"एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस ने जीवे, अन्ने जीवाया। पाणातिवायवेरमणे जाव परिगहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे बढमाणस्स अन्न जीवे, अन्ने जीवाया। उप्पत्तियाए जाव पारिणामियाए बट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। उग्गहे ईहा-अवाये धारणाए बट्टमाण स्स जाव जीवाता / उट्ठाणे जाव परक्कमे बट्टमाणरस जाव जीवाया। नेरइयत्ते तिरिषखमणुस्स-देवत्ते वट्टमाणस्स जाव जीवाया / नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए बट्टमाणरस जाव जीवाया / एवं क.व्हलेक्साए जाष सुवकलेस्साए, सम्मदिट्टीए 3 / ' एवं चवखुदंसणे 4, प्रामणिबोहियनाणे 55, मतिप्रमाणे 36, आहारसनाए 4 / ' एवं ओरालियसरीरे 5 / एवं मणजोए 3" सागारोवयोगे अणागारोपयोगे यट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाता" से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा जं णं ते अनउस्थिया एषमाइपखंति जाब मिर, ते एवमासु / अहं पुण गोयमा ! एबमाइपखामि जाय परवेमि-'एवं खलु पाणातिवाए जाब मिच्छादसणसल्ले बट्टमाणरस से चेव जीवे, से चेव जीवाता जाव अणागारोवयोगे वट्टमाणस्स से चेव जीवे, से चेव जीवाया। [17 प्र.] भगवन् ! प्रत्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य में प्रवृत्त (वर्त्तते) हुए प्राणी का जीव अन्य है और उस जीव से जीवात्मा अन्य (भिन्न) है। प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण में, क्रोविवेक (ऋोध-त्याग) यावत मिश्यादर्शन-शल्य-त्याग में प्रवर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है। प्रोत्पत्तिकी बुद्धि यावत पारिणामिकी बुद्धि में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और -- - - - -. --... . ... ... ... ... ... ... -... -.. 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 723 2. वही, पत्र 723 3. 3 अंक-सूचित पाठ--'मिच्छद्दिट्टीए सम्मामिच्छट्रिीएं। 4. 4 अंक-सूचित पाठ-'अचवख दसणे ओहिदसणे केवलसणे'। 5. 5 अंक-सूचित पाठ—'सुतनाणे ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे'। 6. 3 अंक-सूचित पाठ—'सुतअन्नाणे विभंगनाणे'। 7. 4 अंक-सूचित-पाठ—'भयसन्नाए परिग्गहसन्नाए मेहुणसन्नाए'। 5. 5 अंक-सूचित-पाठ-'उब्वियसरीरे आहारंगसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे'। 9. 3 अंक-सूचित-पाठ—'बइजोए कायजोए'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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