________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] [617 होता है / अतः अरूपी होकर जीव फिर रूपी नहीं हो सकता। सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने अपने केवलज्ञानालोक में इस तत्त्व को इसी प्रकार देखा है।' कठिनशब्दार्थ-जाणामि-विशेष रूप से जानता हूँ, पासामि-सामान्य रूप से जानता (देखता) हूँ। बुज्झामि-सम्यक् प्रकार से अवबोध करता हूँ, सम्यग्दर्शनयुक्त निश्चित ही जानता हूँ। अभिसमन्नागच्छामि-समस्त पहलुओं से संगतिपूर्वक सर्वथा जानता हूँ। पण्णाति-सामान्य जन द्वारा भी जाना जाता है / सत्तरहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 725 (ग्व) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2614-2615 . 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 725 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org