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________________ 580 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हैं / अथवा त्रिया ही प्रधान है, ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसी क्रिया-प्राधान्य की मान्यता वाले क्रियावादी कहलाते हैं। तीसरी व्याख्या के अनुसार एकान्तरूप से जो जीव, अजीव आदि पदार्थों के अस्तित्व को मानते हैं, वे क्रियावादी हैं। इनके 180 भेद हैं / यथा--जीब, अजीव, आश्रब, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ पदों के स्व और पर के भेद से अठारह भेद होते हैं। इन 18 भेदों के नित्य और अनित्य रूप से 36 भेद होते हैं। इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने से 180 भेद होते हैं। यथा--जीव स्वस्वरूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। जीव पररूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। इस प्रकार काल की अपेक्षा से 4 भद होते हैं। इसी प्रकार निर्यात, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा भी जीव के चार-चार भेद होते हैं। इस प्रकार जीव प्रादि नौ तत्त्वों के प्रत्येक के बीस-बीस भेद होने से कुल 180 भेद हुए। (2) अक्रियावादी-इसकी भी अनेक व्याख्याएँ हैं। यथा-(१) किसी भी अनवस्थित पदार्थ में क्रिया नहीं होती। यदि पदार्थ में क्रिया हो तो उसकी अनस्थिति नहीं होगी। इस प्रकार पदार्थों को अनवस्थित मान कर उनमें क्रिया का प्रभाव मानने वाले अक्रियावादी हैं। (2) अथवा क्रिया की क्या आवश्यकता है ? केवल चित्त की शुद्धि चाहिए। ऐसी मान्यता बाले (बौद्ध आदि) प्रक्रियावादी कहलाते हैं। (3) अथवा जीवादि के अस्तित्व को न मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। इनके 84 भेद हैं। यथा—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात तत्त्वों के स्व और पर के भेद से चौदह भेद होते हैं। काल, यदच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और प्रात्मा; इन 6 की अपेक्षा पूर्वोक्त 14 भेदों का वर्णन करने से 1446 = 84 भेद होते हैं। जैसे किजीव स्वत: काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं है। इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद होते हैं, इसी प्रकार यदच्छा, नियति आदि की अपेक्षा से भी जीव के दो-दो भद होने से कुल बारह भेद जीव के हुए / जीव के समान शेष 6 तत्त्वों के भी बारह-बारह भेद होते हैं / यो कुल 124 84 भेद हुए। (3) अज्ञानवादी-जीवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई नहीं है और न ही उनके जानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ज्ञानी और अजानी–दोनों का समान अपराध होने पर ज्ञानी का दोष अधिक माना जाता है, अज्ञानी का कम / इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है / इस प्रकार की मान्यता वाले अज्ञानवादी कहलाते हैं। इनके 67 भेद हैं / यथा-जीव, अजीव, आश्रक, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर. निर्जरा और मोक्ष, इन नौ तत्त्वों के सत्, असत्. सदसत्, प्रवक्तव्य, सद्-प्रवक्तव्य, असद्-ग्रवक्तव्य और सद्-असद्-अवक्तव्य इन सात से गुणन करने पर 647 =63 भेद होते हैं। उत्पत्ति के सद, असद्, सदसत् और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भेद होते हैं। जैसे कि-सत् जीव की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है ? और इसके जानने से क्या लाभ है ? इत्यादि / (4) विनयवादी-स्वर्ग, अप वर्ग आदि श्रेय का कारण बिनय है। इसलिए विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को ही एकान्तरूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं। इन विनयवादियों का कोई लिंग (वेप या चिह्न), प्राचार या शास्त्र नहीं होता। इसके बत्तीस भेद हैं। यथा-देव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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