________________ तेरहवां शतक : : उद्देशक 4] [25 [4] केवतिहि जोवऽस्थिकायपदेसेहि पु?? सिय पुट्ठ', सिय नो पुट्ठ / जइ पुढे नियम प्रणंतेहिं / [31-4 प्र.] (भगवन् ! प्राकाशास्तिकाय का एक प्रदेश) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [31-4 उ.] वह कदाचित् स्पृष्ट होता है, कदाचित् नहीं / यदि स्पृष्ट होता है तो नियमत: अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [5] एवं पोग्गलऽशिकायपएसेहि वि अद्धासमएहि वि / / 31-5] इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों से तथा श्रद्धाकाल के समयों से स्पृष्ट के विषय में जानना चाहिए। 32. [1] एगे भंते ! जीवऽस्थिकायपएसे केवतिएहि धम्मऽस्थि० पुच्छा। जहन्नपए चउहि, उक्कोसपए सतहि / [32-1 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? [32-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से और उत्कृष्टपद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [2] एवं प्रधम्मऽस्थिकायपएसेहि वि / 532-2] इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि प्रागासऽथि० ? सहि / [32-3 प्र.] (भगवन् ! ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह स्पृष्ट होता है ? [32-3 उ.] (गौतम ! वह) आकाश के सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है। [4] केवतिएहि जीवऽस्थि० ? सेसं जहा धम्मऽस्थिकायस्स / [32.4 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह (जीवास्तिकायिक एक प्रदेश) स्पृष्ट होता है ? [32-4 उ.] (गौतम !) शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के प्रदेश के समान (समझना चाहिए।) 33, एगे भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपएसे केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहि० ? एवं जहेव जीवऽस्थिकायस्स / [33 प्र.] भगवन् ! एक पुद्गलास्तिकायिक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org