________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 4] [ 381 [5 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदुःखी--(सुखी) तथा एक समय में दुःखी और अदुःखी (उभय रूप) था ? तथा पहले करण (प्रयोगकरण और विश्रसाकरण) द्वारा अनेकभाव वाले अनेकभूत (अनेकरूप) परिणाम से परिणत हुआ था? और इसके बाद वेदनीय कमं (और उपलक्षण से ज्ञानावरणीयादि कर्मों) की निर्जरा होने पर जीव एकभाव वाला और एकरूप वाला था ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! यह जीव..... यावत् एकरूप वाला था। 6. एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं / [6] इसी प्रकार शाश्वत वर्तमान काल के विषय में भी समझना चाहिए / 7. एवं अणागयमणतं सासयं समयं / [7] अनन्त अनागतकाल के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना चाहिए / विवेचन- प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 5-6-7) में जीव के सुखी, दुःखी प्रादि परिणामों के परिवर्तित होने के सम्बन्ध में भूत, वर्तमान और भविष्यत्-कालसम्बन्धी प्रश्नोत्तर किये गए हैं। आशय---यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदु:खो (सुखी) तथा एक समय में दुःखी और सुखो था। इस प्रकार अनेक परिणामों से परिणत होकर पुनः किसी समय एकभावपरिणाम में परिगत हो जाता है / एक भावपरिणाम में परिणत होने से पूर्व काल-स्वभावादि कारण समह से एवं शुभाशुभकर्म-बन्ध की हेतभत क्रिया से, सुखदुःखादिरूप अनेकभावरूप परिणाम से परिणत होता है। पुनः दुःखादि अनेक भावों के हेतुभूत वेदनीयकर्म और ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षीण होने पर स्वाभाविकसुखरूप एकभाव से परिणत होता है।' परमाणपद्गल की शाश्वतता-प्रशाश्वतता एवं चरमता-अचरमता का निरूपण 8. [1] परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सासए, असासए ? गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए / [8-1 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? |-उ.] गौतम ! वह कथञ्चित शाश्वत है और कथंचित अशाश्वत है। [2] से केपट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ 'सिय सासए, सिय प्रसासए' ? गोयमा ! दब्वयाए सासए, वण्णपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहिं असासए / से तेणढणं जाव सिय असासए। [8-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (परमाणुपुद्गल) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है ? [8-2 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थरूप से शाश्वत है और वर्ण (वर्ण, गन्ध, रस) यावत् स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत है। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि परमाणुपुद्गल कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है। 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 639 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org