________________ 380] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 4. एस शं भंते / खंधे तीतमणतं? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले। [4 प्र.] भगवन् ! यह स्कन्ध अनन्त शाश्वत अतीत, (वर्तमान और अनागत) काल में, एक समय तक, इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [4 उ. गौतम ! जिस प्रकार पुद्गल के विषय में कहा था, उसी प्रकार स्कन्ध के विषय में कहना चाहिए / विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों में पुद्गल और स्कन्ध के भूत-वर्तमान-भविष्य में एक समय तक रूक्ष-स्निग्धादि स्पर्श वाला था, वही एक समय बाद स्निग्ध और रूक्ष परिवर्तन वाला तथा जो एक समय अनेक वर्णादिरूप था, वह एकवर्णादि रूप हो जाता है। कठिनशब्दार्थ-लुक्खो—क्ष स्पर्श वाला / अलुक्खी--अरूक्ष-स्निग्धस्पर्श वाला ! तीयमणंत-अनन्त अतीत / सासयं-शाश्वत, अक्षय / पडुप्पण्णं-प्रत्युत्पन्न-वर्तमान / ' पुदगल : अर्थ और परिणाम-परिवर्तन-पुद्गल शब्द से यहाँ दो अर्थ लिये जा सकते हैंपरमाणु और स्कन्ध / परमाणु में एक समय में रूक्षस्पर्श पाया जाता है तो दूसरे समय में स्निग्ध हो सकता है / द्वयणुक आदि स्कन्ध में तो एक ही समय में स्निग्ध और रुक्ष दोनों स्पर्श पाए जा सकते हैं। क्योंकि उसका एक देश रूक्ष और एक देश स्निग्ध हो सकता है / वह अनेक वर्णादि (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) परिणाम में परिणत होता है, वही फिर एक वर्णादि में परिणत हो सकता है / अर्थात् वह एक वर्णादि-परिणाम के पहले प्रयोगकरण द्वारा या विश्रसाकरण द्वारा अनेक वर्णादिरूप पर्याय को प्राप्त होता है। परमाणु तो समयभेद से अनेक वर्णादिरूप में परिणत होता है किन्तु स्कन्ध समयभेद से तथा युगपत् अनेक-वर्णादिरूप से परिणत हो सकता है। उस परमाणु या स्कन्ध का जब अनेक वर्णादि-परिणाम क्षीण हो जाता है, तब वह एक वर्णादि पर्याय में परिणत हो जाता है / यहाँ पुद्गल और स्कन्ध दोनों के विषय में त्रिकालसम्बन्धी प्रश्न करके उत्तर दिया गया है / वर्तमानकाल के साथ यहाँ अनन्त शब्द प्रयुक्त नहीं है, क्योंकि वर्तमान में अनन्तत्व असंभव है। जीव के त्रिकालापेक्षी सुखी-दुःखी आदि विविध परिणाम 5. एस णं भंते ! जीवे तोतमणतं सासयं समयं समयं दुक्खी, समयं अदुक्खी, समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा ? पुचि च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूतं परिणाम परिणमइ, अह से वेयणिज्जे निज्जिण्णे भवति ततो पच्छा एगभावे एगभूते सिया ? हंता, गोयमा ! एस णं जीवे जाव एगभूते सिया। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 638 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 639 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org