________________ 608] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उम्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति, झू० 2 सढि भत्ताई अणसणाए छेदेति, छे० 2 आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववन्ना। जप्पभिति च णं भंते ! ते वालागा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाव अन्ने उववज्जति / (11-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि देवेन्द्र देवराज शक्र के त्रास्त्रिशक देव हैं ? 11-2 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में बालाक (अथवा पलाशक) सन्निवेश था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस वालाक सनिवेश में परस्पर सहायक (अथवा प्रीतिभाजन) तेतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे, इत्यादि सब वर्णन चरमेन्द्र के त्रास्त्रिशकों (सू. 5-1-2) के अनुसार करना चाहिए; यावत् विचरण करते थे। वे तेतीम परस्पर सहायक गृहस्थ श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उपविहारो एवं संविग्न तथा संविनविहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना से शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन करके, अन्त में आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल के अवसर पर समाधिपूर्वक काल करके यावत् शक्र के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए / 'भगवन् ! जब से वे बालाक निवासी परस्परसहायक गृहपति श्रमणोपासक शक के त्रास्त्रिशकों के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से शक के त्रास्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न एवं उसके उत्तर में शेष समग्र वर्णन, यावत् पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं; यहाँ तक चरमेन्द्र के समान कहना चाहिए। 12. अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स० / एवं जहा सक्कस्स, नवरं चंपाए नगरोए जाव उववन्ना। जप्पिभिति च णं भंते ! चंपिच्चा तावत्तीसं सहाया० सेसं तं चेव जाव अन्ने उववज्जति / [12 प्र. उ.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न का उत्तर शकेन्द्र के समान जानना चाहिए / इतना विशेष है कि ये तेतीस श्रमणोपासक चम्पानगरी के निवासी थे, यावत् ईशानेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। (इसके पश्चात्) जब से ये चम्पानगरी निवासी तेतीस परस्पर सहायक श्रमणोपासक त्रास्त्रिशक बने, इत्यादि (प्रश्न और उसके उत्तर में) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए, यावत् पुराने च्यवते हैं और नये (अन्य) उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 13. [1] अस्थि णं भंते ! सणंकुमारस्स देविदस्स देवरणो० पुच्छा / हता, अस्थि / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [13-1 उ.] हाँ गौतम हैं / [2] से केणठेणं० ? जहा धरणस्स तहेव / [13-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न तथा उसके उत्तर में जैसे धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org