________________ दशम शतक : उद्देशक-४] [609 14. एवं जाव पाणतस्स / एवं अच्चुतस्स जाव अन्ने उववज्जति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // दसमस्स चउत्थो // 10. 4 // [14] इसी प्रकार यावत् प्राणत (देवेन्द्र) तक के त्रास्त्रिशक देवों के विषय में जान लेना चाहिए और इसी प्रकार अच्युतेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के सम्बन्ध में जानना चाहिए, यावत् पुराने च्यवते हैं और (उनके स्थान पर) नये (त्रास्त्रिश देव) उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-शकेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के नास्त्रिशक देवों की नित्यता प्रस्तुत 4 सूत्रों (11 से 14 तक) में पूर्वोक्त सत्रों का प्रतिदेश करके शवेन्द्र से अच्यतेन्द्र तक 12 प्रकार के कल्पों के वैमानिक देवेन्द्रों के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन किया है / प्रायः सभी का वर्णन एक-सा है / केवल त्रायस्त्रिशकों के पूर्वजन्म में उग्र, उपविहारी, संविग्न एवं संविग्नविहारी श्रमणोपासक थे और अन्तिम समय में इन्होंने संलेखना एवं अनशनपूर्वक एवं पालोचनाप्रायश्चित्त करके प्रात्मशुद्धिपूर्वक समाधिमरण (पण्डितमरण) प्राप्त किया था।' त्रास्त्रिशक देव : किन देवनिकायों में ?–देवों के 4 निकाय हैं-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / इनमें से वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों में त्रास्त्रिशक नहीं होते, किन्तु भवनपति एवं वैमानिक देवों में होते हैं / इसीलिए यहां भवनपति और वैमानिक देवों के प्रायस्त्रिशक देवों का वर्णन है / // दशम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 8. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 496-497 9, भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1819 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org