________________ सत्तरसमाइएक्कवीसइमपज्जताई सयाई : पत्तयं एक्कारस उद्देसगा सत्रहवें से इक्कीसवें शतक पर्यन्त : प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक 1. एवं छहि वि लेसाहि छ सया कायन्वा जहा कण्हलेस्ससयं, नवरं संचिटणा, ठिती य जहेव प्रोहिएसु तहेव भागियवा; नवरं सुक्कलेसाए उक्कोसेणं एकत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तमम्भहियाई; ठिती एवं चेव, नवरं अंतोमुत्तो नत्थि, जहन्नगं तहेव; सम्वत्थ सम्मत्तं नाणाणि नस्थि / विरती, विरयाविरई, अणुत्तरविमाणोववत्ती, एयाणि नथि। सव्वपाणा ? णो इणठे समठे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। [1] जिस प्रकार कृष्णलेश्या-सम्बन्धी शतक कहा, उसी प्रकार छहों लेश्या-सम्बन्धी छह शतक कहने चाहिए। विशेष—संचिगुणाकाल और स्थिति का कथन औधिक शतक के समान है, किन्तु शुक्ललेश्यी का उत्कृष्ट संचिढणाकाल अन्तर्मुहुर्त अधिक इकतीस सागरोपम होता है और स्थिति भी पूर्वोक्त ही होती है, किन्तु उत्कृष्ट और अन्तर्महर्स अधिक नहीं कहना चाहिए। इनमें सर्वत्र सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता तथा इनमें विरति, विरताविरति तथा अनुसरविमानोत्पसि नहीं होती। इसके पश्चात् [प्र.] भगवन् ! सभी प्राण यावत् सत्त्व यहाँ पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' इत्यादि पूर्ववत् / 2. एवं एताणि सत्त (40-15-21) अभवसिद्धीयमहाजुम्मसयाणि भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते! ति० // 40 // 17-21 // [2] इस प्रकार ये सात अभवसिद्धिकमहायुग्म (40 / 15-21) शतक होते हैं / / 40 / 17-21 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। 3. एवं एयाणि एक्कवीसं सन्निमहाजुम्मसयाणि / [3] इस प्रकार ये इक्कीस (अवान्तर) महायुग्मशतक संशिपचेन्द्रिय के हुए। 4. सम्वाणि वि एक्कासीति महाजुम्मसताणि / // अवांतर महाजुम्मसता समत्ता // // चत्तालीसतिम सयं समत्तं // 40 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org