________________ [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 24. रसनिव्वत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं। . [24] इसी तरह पांच प्रकार की रस-निर्वृत्ति, यावत् वैमानिकों तक कहनी चाहिए। 25. फासनिव्वत्तो प्रदविहा जाय वेमाणियाणं / [25] आठ प्रकार की स्पर्श-निवृत्ति भी यावत् वैमानिक-पर्यन्त कहनी चाहिए। 26. कतिविधा गं भंते ! संहाणनिवत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! छव्यिहा संठाणनित्यत्ती पन्नत्ता, तं जहा—समचउरंससंठाणनित्यत्ती जाव हुंडसंठागनिव्वत्ती। [26 प्र.] भगवन् ! संस्थान-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [26 उ.] गौतम ! संस्थान-निवृत्ति छह प्रकार की कही गई है। यथा-समचतुरस्रसंस्थान-निवृत्ति यावत् हुण्डक-संस्थान-निवृत्ति / 27. नेरतियाणं पुच्छा। गोयमा ! एगा हुंडसंठाणनिव्वत्तो पन्नत्ता। [27 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के संस्थान-निति कितने प्रकार की कही गई है ? [27 उ.] गौतम ! उनके एकमात्र हुण्डक-संस्थान नित्ति कही गई है। 28. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! एगा समचउरंससंठाणनिव्वत्ती पन्नत्ता। [28 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने प्रकार की संस्थाननिवृत्ति कही गई है ? [28 उ.] गौतम ! उनके एक मात्र समचतुरस्रसंस्थान निवृत्ति कही गई है। 29. एवं जाव थणियकुमाराणं / [26] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त कहना चाहिए। 30. पुढविकाइयाण पुच्छा। गोयमा ! एगा मसूरचंदासंहाणनिव्वती पन्नत्ता। [30 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के संस्थाननिर्वृत्ति कितनी है ? [30 उ.] गौतम ! उनके एकमात्र मसूरचन्द्र-(मसूर की दाल के समान)-संस्थान-निर्वृत्ति कही गई है। 31. एवं जस्स जं संठाणं जाय वेमाणियाणं / [31] इस प्रकार जिसके जो संस्थान हो, तदनुसार निर्वृत्ति, यावत् वैमानिकों तक कहनी चाहिए। 32. कतिविधा गं भंते ! सन्नानिवत्ती पन्नत्ता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org