________________ 442] [ध्याल्याप्राप्तिसूब [223 उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में और संख्यातभागों में नहीं होता, किन्तु असंख्यातवें भाग में, प्रसंख्यात भागों में या सर्वलोक में होता है। बत्तीसवाँ द्वार] विवेचन-क्षेत्रद्वार का अर्थ और क्षेत्रावगाहन कितना और क्यों ?-क्षेत्रद्वार में क्षेत्र का अर्थ यहाँ अवगाहना-क्षेत्र है। प्रश्न का प्राशय यह है कि पुलाक आदि का शरीर लोक के कितने भाग (प्रदेश) को प्रवगाहित करता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि पुलाक से लेकर निग्रन्थ तक का शरीर लोक के असंख्यातवें भाग को अवगाहित करता है। स्नातक केवलिसमुद्घात-अवस्था में जब शरीरस्थ होता है या दण्ड-कपाटकरण-अवस्था में होता है, तब लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है / क्योंकि केवली भगवान का शरीर इतने क्षेत्र-परिमाण ही होता है / मन्थानक-काल में केवली भगवान् के प्रदेशों से लोक का अधिकांश भाग व्याप्त हो जाता है और थोड़ा-सा भाग अव्याप्त रहता है। अत: वह उस समय लोक के असंख्यात-भागों में रहता है। जब वह समग्रलोक को व्याप्त कर लेता है, तब सम्पूर्श लोक में होता है।' तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपरण 224. पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिमागं फुसति, असंखेज्जतिमागं फुसइ० ? एवं जहा प्रोगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियम्वा जाब सिणाये। [दारं 33] / [224 प्र.] भगवन् ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग को स्पर्श करता है या असंख्यातवें भाग को? इत्यादि (क्षेत्रावगाहनावत्) प्रश्न / / [224 उ.] (गौतम !) जिस प्रकार अवगाहना का कथन किया है, उसी प्रकार स्पर्शना के विषय में भी यावत् स्नातक तक जानना चाहिए। तेतीसवाँ द्वार] विवेचन क्षेत्रावगाहनाद्वार और क्षेत्र-स्पर्शनाद्वार में प्रत्तर-(क्षेत्र) स्पर्शद्वार में कहा गया है कि यह द्वार क्षेत्रावगाहनाद्वार के समान है / प्रश्न होता है कि जब दोनों द्वार एक-सरीखे हैं, तब ये पृथक्-पृथक् क्यों कहे गए? इसका समाधान यह है कि जितने प्रदेशों को शरीर अवगाहित करके रहता है, उतने क्षेत्र को क्षेत्रावगाहना कहते हैं तथा अवगाढ़ क्षेत्र (अर्थात् शरीर जितने क्षेत्र को अवगाहित करके रहा हुआ है, वह क्षेत्र) और उसका पार्ववर्ती क्षेत्र जिसके साथ शरीरप्रदेशों का स्पर्श हो रहा है, वह क्षेत्र भी स्पर्शनाक्षेत्र कहलाता है। यह क्षेत्रावगाहना और क्षेत्र-स्पर्शना में अन्तर है। चौतीसवां भावद्वार : प्रौपशमिकादि भावों का निरूपण 225. पुलाए णं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खयोवसमिए भावे होज्जा। [225 प्र.] भगवन् ! पुलाक किस भाव में होता है ? [225 उ.] गौतम ! वह क्षायोपशमिक भाव में होता है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 907 2. (क) भगवती. भ. वृत्ति, पत्र 908 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org