________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [419 28. जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नता ? गोयमा ! एग पलिओवमं ठिती पन्नता। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विरहति / // चोद्दसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 14.8 // [28 प्र.] भगवन् ! जम्भक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [28 उ.] गौतम ! जृम्भक देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर, गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—जम्भक देव : जो अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हैं और सतत क्रीडा आदि में रत रहते हैं, ऐसे तिर्यग्लोकवासी व्यन्तर जम्भक देव हैं। ये अतीव कामक्रीड़ारत रहते हैं / ये वैरस्वामी की तरह वैक्रिय लब्धि प्रादि प्राप्त करके शाप और अनुग्रह करने में समर्थ होते हैं। इस कारण जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं, उसे धनादि से निहाल कर देते हैं और जिन पर कुपित होते हैं, उन्हें अनेक प्रकार से हानि भी पहुँचाते हैं। इनके १०भेद हैं। (1) अन्न-जम्भक-भ नीरस कर देते या उसकी मात्रा बढा-घटा देने की शक्ति वाले देव. (2) पान-जम्भक—पानी को घटाने-बढ़ाने, सरस-नीरस कर देने वाले देव / (3) वस्त्र-जम्भक-वस्त्र को घटाने-बढ़ाने आदि की शक्ति वाले देव / (4) लयन-ज़म्भक-घर-मकान आदि की सुरक्षा करने वाले देव / (5) शयनजम्भक ---शय्या आदि के रक्षक देव / (६-७-८)पुष्प-जम्भक, फल-जम्भक एवं पुष्प-फल-जम्भक-फूलों, फलों एवं पुष्प-फलों की रक्षा करने वाले देव / कहीं-कहीं 8 वे पुष्पफल जृम्भक के बदले 'मंत्र-जृम्भक' नाम मिलता है। (6) विद्या-जम्भक देवी के मंत्रो—विद्याओं की रक्षा करने वाले देव और (10) अव्यक्त-जभ्भक-सामान्यतया, सभी पदार्थों की रक्षा आदि करने वाले देव ! कहीं कहीं इसके स्थान में 'अधिपति-जृम्भक' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है-राजा आदि नायक के विषय में जम्भक देव / ' निवासस्थान—पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन 15 क्षेत्रों में 170 दीर्घ वैताढ्यपर्वत हैं / प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक पर्वत है तथा महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक विजय में एक-एक पर्वत है / देवकूरू में शीतोदा नदी के दोनों तटों पर चित्रकूटपर्वत हैं / उत्तरकुरु में शीतानदी के दोनों तटों पर यमक-समक पर्वत हैं / उत्तरकुरु में शीतानदी से सम्बन्धित नीलवान् आदि 5 द्रह हैं / उनके पूर्व-पश्चिम दोनों तटों पर दस-दस कांचनपर्वत हैं। इस प्रकार उत्तरकुरु में 100 कांचनपर्वत हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 654 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org