________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] कहने चाहिए। इसी तरह क्रोध को नहीं छोड़ते हुए (चतुष्कसंयोगी 8 भंग होते हैं ) कुल 27 भंग समझ लेने चाहिए। 6. इमोसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाधियाए जहन्नट्टितीए वट्टमाणा नेरइया कि कोधोवउत्ता, माणोव उत्ता, मायोव उत्ता लोभोवउत्ता? गोयमा ! कोहोवउत्ते य माणोवउत्ते यमायोवउत्तै य लोभोवउत्ते य 4 / कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य मायोवउत्ता य लोभोवउत्ता य८ / अधवा कोहोवउत्ते य माणोव उत्ते य 10, प्रधवा कोहोवउत्ते य माणोवयुत्ता य 12, एवं असीति भंगा नेयवा एवं जाव संखिज्जसमयाधिया ठिई। असंखेज्जसमयाहियाए ठिईए तप्पाउग्गुक्कोसियाए ठिईए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा / 19. प्र.] इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में एक समय अधिक जघन्य स्थिति में वर्तमान नारक क्या क्रोधपयुक्त होते हैं, मानोपयुक्त होते हैं, मायोपयुक्त होते हैं अथवा लोभोपयुक्त होते हैं ? [9. उ.] गौतम ! उनमें से कोई-कोई क्रोधोपयुक्त, कोई मानोपयुक्त, कोई मायोपयुक्त और कोई लोभोपयुक्त होता है / अथवा बहुत-से क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, मायोपयुक्त और लोभोपयुक्त होते हैं / अथवा कोई-कोई क्रोधोपयुक्त और मानोपयुक्त होता है, या कोई-कोई क्रोधोपयुक्त और बहुत-से मानोपयुक्त होते हैं। [अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और एक मानोपयुक्त या बहुत से क्रोधोपयुक्त और बहुत से मानोपयुक्त होते हैं / ] इत्यादि प्रकार से अस्सी भंग समझने चाहिए / इसी प्रकार यावत् दो समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्येय समयाधिक जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के लिए समझना चाहिए / असंख्येय समयाधिक स्थिति वालों में तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन-नारकों के क्रोधोपयुक्तादिनिरूपणपूर्वक प्रथम स्थितिस्थानद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों में संग्रहणी गाथा के अनुसार रत्नप्रभा पथ्वी के नारकावासों के निवासी नारकों के जघन्य. मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति स्थानों की अपेक्षा से क्रोधोपयुक्तादि विविध विकल्प (भंग) प्रस्तुत किये गए हैं / जधन्यादि स्थिति-प्रत्येक नारकावास में रहने वाले नारकों की स्थिति के स्थान भिन्न-भिन्न होने के कारण हैं--किसी की जघन्य स्थिति है, किसी की मध्यम और किसी की उत्कृष्ट / इस प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रतर में नारकों की आयु कम से कम (जघन्य) 10 हजार वर्ष की और अधिक से अधिक (उत्कृष्ट)९० हजार वर्ष की है। जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की आयु को मध्यम प्रायू कहते हैं। मध्यम प्राय जघन्य और उत्कृष्ट के समान एक प्रकार की नहीं है। जघन्य: एक समय अधिक की; दो, तीन, चार समय अधिक को यावत संख्येय और असंख्येय समय अधिक की आयु भी मध्यम कहलाती है। यों मध्यम प्रायु (स्थिति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए कोई नारक दस हजार वर्ष की स्थिति (जघन्य) वाला, कोई एक समय अधिक 10 हजार वर्ष को स्थिति वाला यों क्रमश: असंख्यात समय अधिक (मध्यम) स्थिति वाला और कोई उत्कृष्ट स्थिति वाला होने से नारकों के स्थितिस्थान असंख्य समय-काल का वह सूक्ष्मतम अंश, जो निरंश है, जिसका दूसरा अंश संभव नहीं है, वह जैनसिद्धान्तानुसार 'समय' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org