________________ प्रर्वतकों में से गोशालक को तथागत बुद्ध सबसे अधिक निकृष्ट मानते थे। तथागत बुद्ध ने सत्पुरुष और असत्पुरुष का वर्णन करते हुए कहा- कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो बहुत जनों के अलाभ के लिए होता है। बहुत जनों की हानि के लिए होता है। बहुत जनों के दुःख के लिए होता है। वह देवों के लिए भी अलाभकर और हानिकारक है, जैसे मंखलि-गोशालक / 28' दूसरे स्थान पर उन्होंने यह भी बताया कि श्रमण धर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मान्यता गोशालक की है, जैसे कि सभी प्रकार के वस्त्रों में 'के शकम्बल' 282 / यह कम्बल शीतकाल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुध, दुःस्पर्श वाला होता है। वैसे ही जीवन व्यवहार में निरुपयोगी गोशालक का नियतिवाद है / 83 इन अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक और उसके मत के प्रति बुद्ध का विद्रोह स्पष्ट था। सूत्रकृताङ्क में आर्द्र कुमार का प्रकरण आया है। उस प्रकरण में आर्द्र कुमार ने आजीवक भिक्षत्रों के अब्रह्मसेवन का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मज्झिमनिकाय 84 प्रादि में भी प्राजीवकों के प्रब्रह्मसेवन का वर्णन मिलता है। मज्झिमनिकाय में निन्थपरम्परा को ब्रह्मचर्य वास में और आजीवकपरम्परा को ब्रह्मचर्यबास में लिया है / 85 इतिहासवेत्ता डा. सत्यकेतू 28 के अभिमतानुसार धमण भगवान महावीर और गोशालक में तीन बातों का मतभेद था। उन तीनों बातों में एक स्त्रीसहवास भी है। इन सत्र अवतारणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक की मान्यता में स्त्रीसहवास पर प्रतिबन्ध नहीं था / तथापि उसका मत इतना अधिक क्यों व्यापक बना, इस सम्बन्ध में हम पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं 1 शोधाथियों को तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए और प्रमाणपुरस्सर चिन्तन देना चाहिए, जिससे सत्य तथ्य समुदघाटित हो सके। इस प्रकार भगवती सूत्र में विविध व्यक्तियों के चरित्र पाए हैं जो ज्ञातव्य हैं और जिनसे अन्य अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। हम अब भगवती सूत्र में पाए हुए सैद्धांतिक विषयों पर चिन्तन करेगे, जो जनदर्शन का हृदय है / भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 2 में द्रव्य-विषयक चिन्तन है। यहाँ हमें सर्वप्रथम यह चिन्तन करना है कि द्रव्य किसे कहते हैं ? सुत्रकृताङ्ग८० चणि में आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने द्रव्य की परिभाषा करते हए लिखा है-जो विशेष-पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है / अन्य जैनाचार्यों ने लिखा है--जो पर्यायों के लय और विलय से जाना जाता है वह द्रव्य है / 288 दूसरे प्राचार्य ने लिखा है जो भिन्न-भिन्न अवस्थानों को प्राप्त हुना, हो रहा है और होगा बह द्रव्य है। वह विभिन्न अवस्थानों का उत्पाद और विनाश होने पर भी सदा ध्र व रहता है। क्योकि ध्रौव्य के अभाव में पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं का सम्बन्ध नहीं हो सकता, अत: पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है / जो द्रव्य है वह सत् है / प्राचार्य उमास्वाति ने सत् 281. अंगुत्तरनिकाय 1-18-4, 5 282. यह कम्बल मानव के केशों से निमित होता था ऐसा टीका साहित्य में उल्लेख है। 283. The Book of Gradual Saying, Vol. I, Page 286 284. मडिभ.मनिकाय भाग 1, पृष्ठ 514; Fncyclopaedia of Religion and Ethics, Dr. Hocrule P. 261. 285. मझिमनिकाय सन्दक सुत्त 2-3-6 286. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ 163 287. द्रवलि-गच्छति तांस्तान पर्यायविशेषानितियद्रव्यम (सू. चु. 1, पृष्ठ 5) 288. दति-स्वपर्यायान प्राप्नोति क्षरति च, यते गम्यते तस्तैः पत्य रिति द्रव्यम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org