SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रादि कन्दमूल का भक्षण नहीं करते / बैलों को निःलंछण नहीं कराते / उनके नाक, कान का, छेदन नहीं कराते। वे त्रस प्राणियों की हिंसा हो ऐसा व्यापार भी नहीं करते / गोशालक के सम्बन्ध में पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों ने शोध प्रारम्भ की है / कुछ विज्ञ शोध के नाम पर नवीन स्थापना करना चाहते हैं पर प्राचीन साक्षियों को भूलकर नूतन कल्पना करना अनुचित है। कितने ही विद्वान् गोशालक सम्बन्धी इतिहास को सर्वथा परिवर्तित करना चाहते हैं। डॉ. वेणीमाधव बरुमा ने इसी प्रकार का प्रयास किया है,२७० जो उचित नहीं है। 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ में मुनि श्री नगराजजी डी. लिट् ने इस संबंध में विस्तार से ऊहापोह किया है। जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्य का अवलोकन कर सकते हैं / 271 यह सत्य है कि गोशालक अपने युग का एक ख्यातिप्राप्त धर्मनायक था। उसका संघ भगवान् महावीर के संघ से बड़ा था। भगवान महावीर के श्रावकों की संख्या 159000 थी तो गोशालक के श्रावकों की संख्या 1161000 थी जो उसके प्रभाव को भी व्यक्त करती है। यही कारण है कि तथागत बुद्ध ने गोशालक के लिए कहा कि वह मछलियों की तरह लोगों को अपने जाल में फंसाता है 272 / इसके तीन मूल कारण थे। 1. निमित्तसंभाषण 2. तप की साधना 3. शिथिल प्राचारसंहिता, जबकि महावीर 273 और बुद्ध 274 के संघ में निमित्त भाषण वयं रहा और भगवान महावीर की तो आचारसंहिता भी कठोर रही। भगवती के अतिरिक्त प्रावश्यकनियुक्ति,२७५ प्रावश्यकणि,२७६ प्रावश्यक मलया गिरिवृत्ति,७७ विषष्टिशलाका पूरुषवरित,७८ महावीरचरियं प्रभति ग्रन्थों में गोशालक के जीवन के अन्य अनेक प्रसंग हैं / पर विस्तारभय से हम उन प्रसंगों को यहाँ नहीं दे रहे हैं। दिगम्बराचार्य देवसेन ने भावसंग्रह ग्रन्थ में गोशालक का परिचय कुछ अन्य रूप से दिया है। उनके अभिनतानुसार गो गालक भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के एक श्रमण थे / वे महाबीर-परम्परा में प्राकर गणधर पद प्राप्त करना चाहते थे पर जब उनकी गणधर पद पर नियुक्ति नहीं हुई तो वे श्रावस्ती में पहुँचे और ग्राजीवक सम्प्रदाय के नेता व अपने-आपको तीर्थङ्कर उद्घोषित करने लगे / वे इस प्रकार उपदेश देने लगे-ज्ञान से मोश नहीं होता, अज्ञान से ही मोक्ष होता है / देव या ईश्वर कोई नहीं है / अतः प्रानी इच्छा के अनुसार शुन्य का ध्यान करना चाहिए / 80 त्रिपिटक साहित्य में भी पाजीवक संघ और गोशाला का वर्णन प्राप्त है। तथागत बुद्ध के समय जितने मत और मतप्रवर्तक थे, उन सभी मतों एवं मत 270. The AjivikaJ. D. L. Vol. II. 1920, pp. 17-18 271. आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, प्रकाशक जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता, खण्ड १,पृष्ठ 44 272. अंगुत्तरनिकाय 1-18-4-5 273. (क) निशीथसूत्र उ. 13-66 (ख) दशवकालिक सूत्र अ. 8, गा. 5 274. विनयपिटक चुल्लवग्ग 5-6-2 275. आवश्यकनियुक्ति गाथा 474 से 478 276. प्रावश्यकचणि प्रथम भाग, पत्र 283 से 287 277. प्रावश्यक मलयगिरिवृत्ति, पत्र 277 से 279 278. त्रिषष्टि शलाका चरित्र, पर्व 10 सर्ग 4 279. महावीरचरियं आचार्य नेमिचन्द्रमरि 280. भावसंग्रह, गाथा 176 से 179 [78] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy