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________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [481 [7| इसी प्रकार पुष्कर-संवर्तक नामक महामेघ के मध्य में (बीचोंबीच) प्रवेश करता है, इस प्रकार के प्रश्नोत्तर (एक परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के) कहने चाहिए / किन्तु वहाँ सम्भावित 'छिन्न-भिन्न होता है' के स्थान पर यहाँ ‘गोला होता-भीग जाता है,' कहना चाहिए। 8. एवं गंगाए महाण दोए पडिसोतं हव्वमागच्छेज्जा / हि विणिधायमावज्जेज्जा, उदगावत्तं वा उदबिदुवा प्रोगाहेज्जा, से णं तत्थ परियावज्जेज्जा। 8] इसी प्रकार 'गंगा महानदी के प्रतिस्रोत (विपरीत प्रवाह) में वह परमाणुपुद्गल पाता है और प्रतिस्खलित होता है।' इस तरह के तथा 'उदकावर्त या उदक बिन्दु में प्रवेश करता है, और वहाँ वह (परमाणु आदि) विनष्ट होता है,' (इस तरह के प्रश्नोत्तर एक परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक के कहने चाहिए / ) विवेचन--परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से प्रश्नोत्तर-प्रस्तत सत्रों में परमाणपदगल से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के अवगाहन करके रहने, छिन्न-भिन्न होने, अग्निकाय में प्रवेश करने, उसमें जल जाने, पूष्करसंवर्तक महामेघ में प्रवेश करने उसमें भीग जाने, गंगानदी के प्रतिस्रोत में आने तथा उसमें प्रतिस्खलित होने, उदकावर्त या उदकबिन्दु में प्रवेश करने और वहाँ विनष्ट होने के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर, अवगाहन करके रहने और छिन्नभिन्न होने के प्रश्न के उत्तर की तरह ही इन सबके संगत और सम्भावित प्रश्नोत्तरों का अतिदेश किया गया है।' असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक छिन्न-भिन्नता नहीं, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में कादाचित्क छिन्नभिन्नता-छेदन-दो टुकड़े हो जाने का नाम है और भेदन—विदारण होने या बीच में से चीरे जाने / परमाणपूदगल से लेकर असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक सुक्ष्मपरिणामवाला होने से उसका छेदन-भेदन नहीं हो पाता, किन्तु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध बादर परिणाम वाला होने से वह कदाचित् छेदन-भेदन को प्राप्त हो जाता है, कदाचित् नहीं / इसी प्रकार अग्निकाय में प्रवेश करने तथा जल जाने श्रादि सभी प्रश्नों के उत्तर के सन्बन्ध में छेदन-भेदन प्रादि को तरह होर समझ लेना चाहिए। अर्थात् सभी उत्तरों का स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्ध, समध्य आदि एवं तद्विपरीत होने के विषय में प्रश्नोत्तर-- 6. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सड्ढे समझे सपदेसे ? उदाहु अणड्ढे अमझे अपदेसे ? गोतमा ! अणड्ढे अमज्झे अपदेसे, नो सड्ढे नो समझे नो सपदेसे / [6 प्र. भगवन् ! क्या परमाणु-पुद्गल सार्ध, समध्य और सप्रदेश है, अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? 3. वियाहपण्णत्ति सुत्त, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा-१, पृ. 210-211 4. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 233 का नाम Jain Education International For Private.& Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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