________________ 136] [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र और परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होंगे, इत्यादि सब सुप्त के समान कहना चाहिए, तथा दक्षता (उद्यमीपन) का कथन जाग्रत के समान कहना चाहिए, यावत् वे (दक्ष जीव) स्व, पर और उभय को धर्म के साथ संयोजित करने वाले होते हैं / ये जीव दक्ष हों तो प्राचार्य की वैयावृत्य, उपाध्याय की वैयावृत्य, स्थविरों की वैयावृत्य, तपस्वियों की वैयावृत्य, ग्लान (रुग्ण) की वैयावृत्य, शेक्ष (नवदीक्षित) की वैयावृत्य, कुलवैयावृत्य, गणवैयावृत्य, संघवयावृत्य और सार्मिकवैयावृत्य (सेवा) से अपने आपको संयोजित (संलग्न) करने वाले होते हैं। इसलिए इन जीवों की दक्षता अच्छी है। हे जयन्ती ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है, कि कुछ जीवों का दक्षत्व (उद्यमीपन) अच्छा है और कुछ जीवों का पालसोपन अच्छा है। विवेचन-कौन श्रेष्ठ-सुप्त या जागत, सबल या दुर्बल ? दक्ष या आलसी? प्रस्तुत सूत्रत्रय (18-16-20) में अपेक्षा-भेद से सुप्त आदि के अच्छे होने न होने का सकारण प्रतिपादन किया गया है। कुछ शब्दों के निर्वचनपूर्वक अर्थ-अहम्मिया-अधार्मिक-श्रुत-चारित्र-रूप धर्म का जो प्राचरण करते हैं, वे धार्मिक हैं, जो धार्मिक नहीं हैं, वे अधार्मिक हैं। अहम्माणुया-अधर्मानुगधुत रूप धर्म का जो अनुसरण करते हैं---धर्मानुसार चलते हैं, वे धर्मानुग और जो धर्मानुग नहीं हैं, वे अधर्मानुग हैं। अहम्मिट्ठा-अमिष्ठ-श्रुतरूप धर्म ही जिन्हें इष्ट. बल्लभ (प्रिय) या जिनके द्वारा पूजित (प्रादृत) है, वे मिष्ठ हैं. अथवा धर्मीजनों को जो इष्ट (प्रिय) हैं वे मिष्ठ हैं, या अतिशय धर्मीमिष्ठ हैं, जो धर्मेष्ट, धर्मीष्ठ या मिष्ठ नहीं हैं, वे अधर्मेष्ट, अधर्मीष्ट या अर्धामष्ठ हैं। अहम्मक्खाई-जो धर्म का पाख्यान-कथन (बात) नहीं करते वे अधर्माख्यायी हैं, अथवा अधर्मरूप में जिनकी ख्याति-प्रसिद्धि है, वे अधर्मख्याति / अहम्मपलोई जो धर्म को उपादेयरूप से नहीं देखते अथवा जो अधर्म का ही अहर्निश चिन्तन-निरीक्षण करते हैं, वे अधर्मप्रलोकी हैं। अहम्मपलज्जणाअधर्मप्ररंजना, अधर्म में जो रंगे हुए हैं अधर्म में प्रारक्त-आसक्त हैं, वे। अहम्मसमुदाचारा-अधर्मसमुदाचार-जिनमें चारित्रात्मक धर्माचार नहीं है, अथवा जिनका धर्माचार सप्रमोद (प्रसन्नता युक्त) नहीं है, अहम्मेण --श्रुत-चारित्ररूप धर्म से विरुद्ध / वित्ति कप्पेमाणा-वृत्ति-जीविका करने वाले।' कठिन शब्दार्थ--बलियतं-बलबत्ता, बलवान होना या रहना। दुबलियतं-दुर्बलवत्ता, दुर्बल होना या रहना / दक्खत्तं-दक्षत्व-उद्यमीपन / पालसियत्तं-पालसीपन / ' दक्ष व्यक्तियों को विशेष धर्मलाभ--जो धार्मिक व्यक्ति दक्ष होते हैं, वे प्राचार्य से लेकर सार्मिक व्यक्तियों की वैयावत्य-सेवा में अपने आपको जुटा देते हैं और निर्जरारूप परम धर्म लाभ प्राप्त करते हैं। 1. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र 560 2. (क) वही, पत्र 560 (ख) भगवती सूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 1997 3. विवाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 571 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org